पहाड़ों के लोक देवताओं को लेकर मेरी हमेशा से ही रुचि रही है। लोक देवता हमारी संस्कृति के साथ ऐसे रचे बसे हैं कि हम पलभर भी उनसे दूर रहने की सोच भी नहीं सकते हैं। इसे डर कह लीजिए या फिर उनकी कृपा। ऐसे ही एक लोक देवता हैं जाख देवता।
इनकी पूजा कुमाऊं में नहीं बल्कि गढ़वाल में होती है। जिस पश्वे के शरीर में जाख देवता आते हैं वो दहकते हुए अंगारों पर आसानी से चलने लगता है। पश्वा के न ही पैर जलते हैं, और न ही अंगारों का प्रभाव लैस मात्र भी पैरों के तलवों पर दिखता है। कहीं कहीं जाख देवता का पश्वा खोलते तेल से पकौड़े निकालता है, हाथों को कुछ नहीं होता।
गढ़वाल में कहीं कहीं जाख देवता (Jakh Devta) को पीली वस्तुएं दी जाती हैं। चमोली के अलावा जाख देवता के मंदिर नारायणकोटि, कोठेड़ा, और जखधार में भी हैं। कोठेड़ा के मंदिर में ध्यानमुद्रा में पुरुषाकार मूर्ति स्थापित है, और यहां सौर संक्रांति, अमावस्या, मंगलवार, और शनिवार को विशेष पूजा होती है। पूजा में पीला चंदन, पीला अक्षत, रोट, और सफेद बकरे की बलि दी जाती है। नारायणकोटि के जाख देवता को पीली वस्तुएं प्रिय हैं, और इनकी यात्रा में ग्रामीणों का सहयोग अनिवार्य है।
कहने का अर्थ है – जाख देवता गढ़वाल की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत का जीवंत प्रतीक हैं। इनकी पूजा और जाख मेला देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। रुद्रप्रयाग के गुप्तकाशी क्षेत्र में देवशाल गांव में स्थित जाख देवता मंदिर में बैशाख मास, कृष्ण पक्ष, नवमी तिथि को भव्य जाख मेला आयोजित होता है। यह मेला चौदह गांवों के लोगों द्वारा संयुक्त रूप से मनाया जाता है। मेले की तैयारी दो दिन पहले शुरू हो जाती है, जब ग्रामीण भक्ति भाव से लकड़ियाँ, पूजा सामग्री, और खाद्य सामग्री एकत्र करते हैं। एक विशाल अग्निकुंड बनाया जाता है, जिसमें लगभग 100 कुंतल लकड़ियाँ डाली जाती हैं, जो 10 फुट ऊंचा ढेर बनाती हैं। जाख देवता का पश्वा दहकते अंगारे पर नाचते हैं, और लोगों को आशीर्वाद देते हैं।
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पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, महाभारत का यक्ष ही जाख देवता हैं। एक अन्य लोक कथा के अनुसार ग्राम नारायण कोटि के किसी व्यक्ति को जोशीमठ में स्नान के दौरान एक गोलाकार और सुंदर धारियों वाला पत्थर मिला था। वह इस पत्थर को उपयोगी मानकर घर ले आया था। रात में उस व्यक्ति को स्वप्न में जाख देवता ने दर्शन हुए, उन्होंने उससे कहा कि जिस पत्थर को उठाकर तू अपने घर लाया है, वास्तव में वह मेरा प्रतीक रूप है। कल मेरे प्रतीक रूप को अपने गांव के ऊपर जंगल में कंडी में लेकर जाना, जहां यह मेरा प्रतीक रूप पत्थर गिर जायेगा वहां पर मेरा देवालय स्थापित कर देना। अगले दिन नित्यकर्मों से निवृत होकर वह व्यक्ति उस पत्थर को कंडी में रख कर जंगल की ओर गया, उसके हाथ से कंडी एक घनघोर बाज के जंगल के बीच धार “छोटी पहाड़ी या टीला” में गिरा, उसी स्थान पर देवता का मंदिर स्थापित कर दिया गया और उस धार का नाम जाखाधार पड़ गया था। जाख देवता की पूजा की परंपरा 11वीं सदी से चली आ रही है।
लेख : श्री ललित फुलारा











