पहाड़ों में सर्दी के मौसम की समाप्ति होते ही बंसत ऋतु के आगमन की तैयारियां प्रारम्भ हो जाती हैं। यहाँ के पेड़-पौधों की डालियाँ नयी कोपलों के साथ नए पत्ते धारण करने के लिए आतुर रहती हैं। वहीं इस अंचल में विभिन्न प्रकार के फूल खिलने को लालायित रहते हैं। जैसे ही होली की समाप्ति होती हैं, बसंत ऋतु के साथ-साथ हिन्दू नववर्ष का आगमन होता है। पेड़ों से कलियाँ फूटने लगती हैं और नाना प्रकार के फूल खिल उठते हैं। इन्हीं में पहाड़ों के गांव-घरों के आसपास एक खूबसूरत गहरे पीले रंग का फूल खिलना प्रारम्भ होता है, जिसे लोग ‘प्योंली’ या ‘फ्योंली’ (Pyoli/Fyoli) के नाम से जानते हैं। इस सुंदर फूल को यहाँ प्रेम का प्रतीक भी माना जाता है।
पहाड़ की जनभावनाओं से जुड़ा प्योंली फूल बसंत के आगमन की सूचना देता है। बसंत के आगमन होने पर यह फूल पहाड़ के पथरीले जगहों में खिलकर चारों ओर अपनी मनमोहक छटा बिखेर देता है।
प्योंली का वानस्पतिक नाम, आकार और आयुर्वेद में महत्व
करीब 1700 से 1800 मीटर की ऊंचाई पर खिलने वाला प्योंली फूल का वानस्पतिक नाम (Botanical Name: Reinwardtia indica) रेनवर्डटिया इंडिका है। उत्तराखंड में यह फूल प्योंली या फ्योंली (Pyoli or Fyoli) के नाम से प्रसिद्ध है। प्योंली को येलो फ्लेक्स (Yellow flax) और गोल्डन गर्ल (Golden girl) के नाम भी जानते हैं। प्योंली का वानस्पतिक नाम हालैंड के प्रसिद्ध वनस्पतिज्ञ Caspar Georg Carl Reinwardt के नाम पर पड़ा है।
आकार में प्योंली का छोटा सा फूल होता है जो एक साथ बहुत सारे फूलों के साथ खिलता है। इस फूल में कुल पांच पंखुड़ियां होती हैं। इसका पौधा भी आकार में छोटा होता है। प्योंली के फूल से किसी प्रकार की कोई सुगंध नहीं आती है। आयुर्वेद में प्योंली के फूलों की पंखुड़ियों को पीसकर घावों में लगाने से घाव जल्दी भर जाता है। साथ ही यह बकरियों का मनपसंद भोजन भी है। छोटे बकरी के बच्चों को इसकी पत्तियों को खिलाया जाता है, जो बेहद पौष्टिक होती हैं।
प्योंली के फूल का सांस्कृतिक महत्व
प्योंली एक ऐसा फूल है जो पहाड़ की लोक संस्कृति में रचा बसा है। बेहद की सुंदर और मनमोहक इस फूल का जिक्र बहुत से लोक कवियों और गायकों ने अपनी रचनाओं में उकेरा ही नहीं बल्कि इसे खुद में भी जिया है। फूलदेई पर्व के दौरान यह फूल उत्तराखंड में चारों ओर अपनी छटा बिखेर देता है। फूलदेई के दिन बच्चे इस फूल को भी घरों की देहरी पर चढ़ाकर घर को आशीष देते हैं।
प्योंली के फूल की कहानी- Fyoli Flower in Uttarakhand
उत्तराखंड की लोककथाओं के अनुसार प्योंली नाम की एक रूपवती कन्या थी। वह अपने आसपास के सभी पेड़-पौधों, फूलों आदि से बेहद प्यार करती थी। यहाँ के सभी पेड़-पौधे, फूल, जानवर भी प्योंली से बेहद लगाव रखते थे।
एक बार एक राजकुमार वहां के जंगल में आखेट के लिए आया। आखेट करते-करते उसे जंगल में ही रात होने लगी और वह पास के गॉंव में शरण के लिए आया। उसने प्योंली को देखा और उसकी सुंदरता से मंत्रमुग्ध हो गया।
राजकुमार को प्योंली से प्रेम हो गया और उससे शादी करके अपने देश ले गया। अब वह प्रकृति के बीच से सीधा राजमहल पहुँच चुकी थी। वह अपने सभी साथियों से बिछुड़ चुकी थी। प्योंली को अब अपने मायके की याद आने लगी, अपने मित्रों के वियोग में वह तड़पने लगी थी। उधर जंगल मे प्योंली बिना पेड़-पौधें, फूल मुरझाने लगे, जंगली जानवर उदास रहने लगे। प्योंली राजमहल तो आ गई। लेकिन प्योंली को राजसी जीवन रास नहीं आया। राजमहल का चकाचौंध उसे असहज करने लगा। अब उसका मन एक पल के लिए भी महल में नहीं लगता था। वह बीमार रहने लगी थी।
राजमहल में प्योंली अपनी सास और पति से उसे मायके भेजने की विनती करती रहती थी लेकिन उन्होंने उसे मायके नहीं भेजा। मायके की याद में प्योंली बेचैन रहने लगी। मायके की याद में तड़पकर एक दिन प्योंली मर मर गयी। राजकुमारी की इच्छानुसार उसे उसके मायके के पास ही दफना दिया जाता है। कुछ दिनों बाद जहां पर प्योंली को दफ़नाया गया था, उस स्थान पर एक सुंदर पीले रंग का फूल खिल गया था। जिसे लोगों ने प्यार से ‘प्योंली का फूल‘ (Pyoli flower) नाम दे दिया। लोगों का मानना है तब से पहाड़ों में प्योंली की याद में फूलों का त्यौहार ‘फूलदेई‘ मनाया जाता है।











