लोककथा: "सरग ददा पाणी, पाणी!"- एक श्रापित चातक की करुण गाथा।
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"सरग दिदा पाणी, पाणी" - एक करुण पुकार, एक चातक पक्षी की अमर लोककथा, जो उत्तराखंड के पहाड़ों से निकलकर दिलों में बसती है। |
उत्तराखंड के सुरम्य पर्वतीय अंचल न केवल प्राकृतिक सौंदर्य से भरे हैं, बल्कि वहाँ की लोक संस्कृति भी उतनी ही समृद्ध और भावपूर्ण है। यहां के लोगों का प्रकृति के साथ आत्मीय रिश्ता है। यही कारण है कि यहां की लोककथाओं में अक्सर पक्षी, पेड़, झरने और जानवर पात्र बनकर मानवीय भावनाओं को दर्शाते हैं। ऐसी ही एक मार्मिक लोककथा है -चातक पक्षी की कथा, जिसे उत्तराखण्ड में "सरग ददा पाणी, पाणी" से जानते हैं।
लोककथा में "सरग ददा पाणी, पाणी" का अर्थ:
- "सरग": स्वर्ग, या आकाश
- "ददा": बड़ा भाई (कुमाऊँ में बड़े भाई या अपने से बड़ों को 'ददा' कहकर पुकारते हैं, वहीं गढ़वाल में 'दिदा' कहते हैं।
- "पाणी": पानी
- "पाणी, पाणी": पानी के लिए करुण पुकार या व्याकुलता
लोककथा का आरंभ
बहुत समय पहले पहाड़ के एक छोटे से गाँव में एक वृद्धा अपनी बेटी और नवविवाहिता बहू के साथ रहती थी। तीनों के बीच सौहार्द और समानता का ऐसा वातावरण था, जैसा आज के युग में दुर्लभ है। वृद्धा दोनों को समान भोजन देती, समान काम करवाती और कभी किसी में भेद नहीं करती।
बहू मेहनती थी, कार्य में तल्लीन और समर्पित। वहीं बेटी थोड़ी आलसी थी, काम को टालमटोल करती और जैसे-तैसे निपटाने की कोशिश में रहती। मां ने उसे कई बार समझाया, भाभी से सीखने को कहा, लेकिन उस पर कोई असर नहीं होता।
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गर्मी का महीना था-वैशाख-जेठ की तपती दुपहरी। घर के आगे पटांगण में गेहूं की दै (अनाज को बैलों से मड़वाने की प्रक्रिया) चल रही थी। सूरज की तपिस में बैल बुरी तरह थक गए और हाँफने लगे थे। वृद्धा समझ गई कि बैल प्यासे हैं, लेकिन घर में पर्याप्त पानी नहीं था। वृद्धा ने बैलों की हालत देखी तो घबरा गई। बैलों को अब पाने के लिए पानी का आवश्यकता थी। गांव के पास एक गधेरा (छोटी सी नदी) था, पर वह घर से करीब एक-डेढ़ किलोमीटर दूर था।
अब समस्या यह थी कि इस गर्म दोपहर में किसे भेजा जाए - बहू को या बेटी को? वृद्धा को कोई पक्षपात नहीं करना था, इसलिए उसने एक युक्ति निकाली। वृद्धा ने दोनों को लालच दिया और कहा-
"जो पहले जाकर बैलों को पानी पिलाएगा, उसे मैं खीर खिलाऊंगी!"
खीर का नाम सुनते ही बहू और ननद की आंखें चमक उठीं। वे अपने-अपने बैल को लेकर चल पड़ीं।
बेटी ने चालाकी दिखाई। उसने भाभी से कहा, "चलो अलग-अलग रास्तों से चलते हैं, देखेंगे कौन पहले पहुंचता है।"भाभी ने सहमति दे दी।
धोखा और छल
बेटी का मन तपती धूप में जाने का नहीं था। उसने सोचा-“बैल तो बोल नहीं सकता, क्यों न झूठ बोल दूं?”
वह बैल को बिना पानी पिलाए ही वापस ले आई और मां से कह दिया, “मां! पिला आई पानी।”
मां ने विश्वास किया और उसे खीर खाने को दे दिया।
पर वह प्यासा बैल, खूंटे से बंधा, उसकी ओर ताकता रहा। थोड़ी ही देर में प्यास से उसके प्राण-प्रखेरू उड़ गये।
श्राप और परिणाम
मरते समय उस बैल ने कराहते हुए अपनी पीड़ा में ननद को श्राप दे डाला-
"जैसे तूने मुझे पानी के लिए तड़पाया, जा! तू भी वह पक्षी बन जा, जो जीवनभर एक बून्द पानी के लिए तड़पती रहे !"
कहते हैं, उस श्राप के प्रभाव से वह ननद एक चातक पक्षी बन गई।
(जनश्रुति के अनुसार चातक वह पक्षी के जो स्वाति नक्षत्र में बरसने वाले जल को ही बिना घरती में गिरे ग्रहण करता है।)
अब हर साल जेठ की तपती दोपहरी में वह पहाड़ों पर उड़ती है और करुण स्वर में गा-गा कर आसमान से पानी मांगती है-
"सरग दिदा पाणी, पाणी!"
लोक परंपरा में यह कथा
आज भी जब गाँव के बच्चे इस चातक पक्षी की आवाज सुनते हैं, तो बड़े-बूढ़े यह कथा सुनाते हैं। यह कथा एक सीख है -
धोखे और स्वार्थ का अंत हमेशा दुखद होता है।
प्रकृति सब देखती है, और न्याय ज़रूर होता है।
यह कथा केवल एक श्रुत परंपरा नहीं, बल्कि एक गहरा नैतिक संदेश है -
धोखा और आलस्य का परिणाम केवल दूसरों के लिए नहीं, स्वयं के लिए भी विनाशकारी होता है। वहीं निगीह और बेजुबान पर किया गया अत्याचार का दंड तुरंत मिलता है।
उत्तराखंड की इस लोककथा में कर्म, सत्य, और प्रकृति के नियमों की शक्ति दिखाई देती है।
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आपके क्षेत्र में क्या इस चातक पक्षी की कोई अलग कथा है?
अगर आप उत्तराखंड या हिमालयी अंचल से हैं, तो शायद आपने भी इस पक्षी की करुण पुकार सुनी होगी। क्या आपके गांव में भी यह कथा कही जाती है? या इससे मिलती-जुलती कोई और लोककथा है?
कृपया हमें ज़रूर बताएं-क्योंकि हर आवाज़ के पीछे एक कहानी होती है, और हर कहानी पहाड़ों की आत्मा में बसी होती है।
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