न्यायदेवता गोरिल व सगटा ब्राह्मण की कथा।

 खबरदार ! मेरे राज्य में कोई भी बलवान निर्बल
    को और धनवान निर्धन को नहीं सता सकता-
           “न दुर्बलं कोऽपि बली मनुष्यो,
             बलेन बाधेत मदीयराज्ये।” 


उत्तराखण्ड की लोक आस्था से जुड़े न्याय देवता ग्वेलज्यू के संबंध में अनेक प्रकार के रागभाग और लोकप्रचलित जनश्रुतियां हैं, जिनसे सामान्य लोग कम ही परिचित हैं। गोलू, गोरिल अथवा ग्वेल देवता उत्तराखंड के एक ऐसे न्यायकारी देवता रहे हैं जिन्होंने सहस्राब्दी पूर्व उत्तराखंड में सामंतवादी राजतन्त्र के विरुद्ध सत्य और न्याय की मुहिम चलाई और लोक अदालतों के माध्यम से घर-घर जाकर आम आदमी के लिए इंसाफ के दरवाजे खोले। यही कारण है कि ग्वेल देवता के प्रति उत्तराखंड वासियों की अगाध श्रद्धा है। मान्यता है कि ग्वेलज्यू का श्रद्धापूर्वक स्मरण मात्र करने से लोगों के कष्ट दूर हो जाते हैं और उनकी मनोकामनाएं भी  पूरी हो जाती हैं। अन्याय करने वाला चाहे कितना ही ताकतवर और बलशाली हो ग्वेल देवता पीड़ित व्यक्ति की मदद अवश्य करते हैं। यही कारण है कि दीन-दुःखियों को न्याय दिलाने के लिए वे आज भी कुमाऊं अंचल के घर-घर में बोलंता देव के रूप में पूजे जाते हैं। 

डा.रामसिंह की पुस्तक 'रागभाग काली कुमाऊं' (पृ.15-16) में चंपावत के सगटा ब्राह्मण की ऐसी ही रोचक कथा का वर्णन आया है। यह कथा स्थानीय रागभाग (जनश्रुति) पर आधारित होने के बावजूद भी इसका सम्बन्ध वर्तमान चम्पावत क्षेत्र के ऊपरी इलाके 'दौंनकोट' या दानवकोट से सम्बंधित है। यहां एक बिरखम भी मिलता है, जिसमें 'दुनऊ को बिरखम' अंकित है जिसका समय 1350 ईस्वी है।उल्लेखनीय है कि 'दौंनकोट' दानव वंश से सम्बंधित राजाओं का किला था। वे कभी चंपावत तथा उसके आसपास के क्षेत्रों के शासक भी रहे थे। राजा ज्ञानचंद ने सन् 1384 ईस्वी (शाके 1306) में मेघ बोहरा की पुत्री से विवाह किया था। इस सबसे विदित होता है कि चौदहवीं शताब्दी में चंद राजाओं के शासनकाल में दानव वंशी बोहराओं का मांडलिक राजाओं के रूप में अच्छा खासा दबदबा था। वहां की स्थानीय 'रागभाग'और उस समय के ऐतिहासिक साक्ष्यों से भी यह पुष्टि होती है कि वहां दानव वंशी वोहरा एवं राउत मांडलिक शासक भी रहे थे। 

फुंगर के बोरों (बोहराओं) की रागभाग के अनुसार उनका राजचिह्न हाथ का पंजा था। बालेश्वर मन्दिर के आस-पास मिलने वाले बिरखमों में यह चिह्न पंजा अंकित भी मिलता है। बोहराओं का इष्ट देवता 'घटकू' या घटोत्कच था। स्थानीय मान्यता के अनुसार 'घटकू' को वायुपुत्र भीम के अंश से हिडिम्बा दानवी के गर्भ से उत्पन्न माना जाता है।

चंपावत में न्यायदेवता गोरिल के स्थापित होने से पहले फुंगर के बोहराओं ने इस उपत्यका में भारी आतंक मचा रखा था। राज्य भर में किसी का पुत्र होता तो पांच रुपये का कर बोहरा को चुकाना पड़ता था। उन दिनों पांच रुपये कमा पाना जीवन भर में भी संभव नहीं था। इसी सन्दर्भ में चंपावत के एक सगटा ब्राह्मण की कथा वहां की रागभाग में लोकप्रसिद्ध है और न्यायदेवता गोरिल से भी इसका घनिष्ठ सम्बंध जुड़ता है। हमने इस कथा के सन्दर्भ को डा.रामसिंह की पुस्तक 'रागभाग काली कुमाऊं' से ग्रहण किया है।

स्थानीय रागभाग के अनुसार चंपावत का एक सगटा ब्राह्मण व्यापार के लिए भोट (तिब्बत) गया था और नमक के व्यापार से बड़ी कठिनाई से एक रुपया कमा कर अपने घर लौट रहा था। उसकी पत्नी गर्भवती थी। जब वह घर के पास पहुंचा तो उसने अपने घर नौबत बजती सुनी। लोगों ने सगटा को पुत्रजन्म की बधाई भी दी। लेकिन सगटा इस बात से दुःखी और चिंतित था कि पूरे व्यापार में एक रुपये की कमाई हुई और अब बोहरा को पांच रुपये कर के रूप में चुकाने पड़ेंगे। बाकी चार रुपये वह कहां से लाएगा। वहां उसकी मदद करने वाला कोई नहीं था। दानव वंशी बोहरा के दमनकारी शासन से सब थर-थर कांपते थे। उसने अपने क्षेत्र के तीन बूड़ों (प्रमुख सामंतों) कार्की बूड़ा, तड़ागी बूड़ा और चौधरी बूड़ा से भी सहायता मांगी क्योंकि वे भी बोहरा के अत्याचारों से खूब सताए हुए थे, पर उनमें से किसी के पास बोहरा के सामने लड़ने की हिम्मत नहीं थी। 

सगटा ब्राह्मण को भरोसा था तो केवल अपने इष्टदेव गोरिल पर। वह समझता था कि गोरिल देवता की मदद से ही इस जुल्मी बोहरा पर काबू पाया जा सकता है। इसलिए उसने हार नहीं मानी और बोहरा के जुल्म के विरुद्ध गोरिल देवता के आंगन में धूनी रमा दी और प्रण कर लिया कि आज या तो मर जाऊंगा या फिर बोहरा का पांच रुपये का अत्याचारी कर तुड़वा कर ही रहूंगा। अंत में गोरिल देवता की ऐसी कृपा हुई कि सगटा ब्राह्मण को मदद देने के इरादे से गोरिल के नेतृत्व में कार्की, तड़ागी, चौधरी तीनों बूड़े भी बोहरा के विरुद्ध मैदान में उतर आए। दोनों ओर से युद्ध का बिगुल बज गया। सगटा ब्राह्मण की तरफ से लड़ने वालों की सेना के आगे गोरिल के झंडे में उनकी सद्य प्रसूता माता (कालिंका) का चित्र बना था जबकि दूसरी ओर बोहरा के झंडे पर उसके इष्ट देव 'घटकू' (घटोत्कच) का चित्र था। पर दानव वंशी बोहरा का इष्टदेव घटकू गोरिल को अपवित्र मानता क्योंकि उत्पन्न होने के बाद उसके जातकर्म आदि संस्कार नहीं हुए थे। यानी उसकी छूत नहीं टली थी। 

युद्ध के समय बोहरा ने जब प्रतिपक्षियों को मार भगाने का आदेश दिया, किन्तु उनका इष्ट देवता घटकू, गोरिल के झंडे में सद्य प्रसूता (छूतिया) स्त्री का चित्र देखकर स्वयं ही भाग खड़ा हुआ। क्योंकि बोहरा का इष्टदेव 'घटकू' देवता अशौच और छूत से परहेज करता था। इस प्रकार 'घटकू' देवता के भाग जाने के बाद बोहरा ने भी मैदान छोड़ दिया। बोहरा के हारने पर उन्हें प्रजा पर अपनी अन्याय पूर्ण कर व्यवस्था उठानी पड़ी। पहले बोहरा के राज में पुत्रोत्सव पर पांच रुपये के दंड के भय से जो बाजा नहीं बजाया जाता था, अब दंड के हट जाने से बधाई का बाजा हर्षोल्लास के साथ बजने लगा। इस घटना के बाद सगटाओं का चंपावत में प्रभाव बढ़ गया। किंतु गोरिल से सम्बंधित इस रागभाग का मुख्य संदेश यही है कि जुल्म और अत्याचार के विरुद्ध लड़ने का यदि कोई कमजोर व्यक्ति भी साहस बटोरता है तो न्याय देवता गोरिल उसे न्याय दिलाने में उसकी मदद अवश्य करते हैं और अन्यायी को चेतावनी देते हुए कहते हैं- 

खबरदार ! मेरे राज्य में कोई भी बलवान निर्बल
    को और धनवान निर्धन को नहीं सता सकता-
           “न दुर्बलं कोऽपि बली मनुष्यो,
             बलेन बाधेत मदीयराज्ये।” 
     
'ग्वल्लदेवचरित' महाकाव्य,21.13

साभार : डा.राम सिंह की पुस्तक 'रागभाग काली कुमाऊं' पर आधारित कथा।
आलेख-© डा.मोहन चंद तिवारी