आमा की बातें - तब क्या थी अम्मा की दिनचर्या ?
बचपन में कुछ समय आमा (नानी) के साथ व्यतीत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तब आज की तरह मनोरंजन के साधन नहीं थे। टेलीविजन भी नहीं था, गांव बिजली भी नहीं थी। सर्दियों की रात को खाना खाकर हर रोज हम आमा के साथ सोने चले जाते और आमा से कभी कथा (कहानियां), आण, गाने सुनाने को बोलते। आमा हमारी फरमाइश पूरी कर देती थी। कभी आमा कहानी सुनाती, आण कहती, कभी गांव की पुरानी बाई कुसुम की कहानी कहती।
एक बार आमा ने अपने जमाने की बातें सुनाई कि उनकी दिनचर्या कहाँ से प्रारम्भ होती थी और कहाँ जाकर समाप्त होती थी। उन्होंने कहा 'जब मैं घर में ब्वारी (बहु) बनकर आई तब हम सुबह ही यानी साढ़े तीन-चार बजे तक उठ जाते थे। चीड़ के छिलके की रोशनी में हाथ-मुंह धोकर हम रोज 'जांतर' (घर में हाथ से चलाई जाने वाली छोटी चक्की) से गेहूं पीसने को बैठ जाते थे। पड़ोस में अन्य ब्वारियों की भी जांतर चलाने की आवाज़ आती थी। कभी दायें हाथ से तो कभी बाएं हाथ से जांतर को घुमाते थे। थक जाते थे, छोटी उमर के ही हुए। बगल के घर से जांतर की आवाज को भी हम सुनते रहते थे। आवाज़ बंद होती तो समझ जाते वे अब थक चुकी हैं।
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यही सिलसिला हर रोज का था। तब गाँवों में गेहूं पीसने वाली चक्की नहीं थी, घराट यानि पनचक्कियां भी दूर थी। उसके बाद थोड़ा उजाला होने पर गौशाला में जाकर जानवरों को चारा डालते, दूध दुहते, गौशाला की सफाई करते थे। फिर छाछ बनाते और नूणी (मक्खन) बिलाकर घी बनाते थे। तब तक उजाला हो जाता, धारे पर जाकर गागर से सिर पर रखकर पानी लाते थे। तब हर घर में चाय प्रचलित नहीं थी, कुछ गिने-चुने और बुजुर्ग लोग ही चाय पीते थे वो भी गुड़ के कटक के साथ। कलेऊ की एक-दो रोटी खाने के बाद हम खेतों या जंगलों की ओर पशुओं के चारे के लिए निकल पड़ते थे। चारा लाकर हम दोपहर में घर पहुंचते थे।
फिर दोपहर में भोजन कर मवेशियों को देखना। नजदीक के खेतों में जाना। फिर शाम होते ही पशुओं के लिए चारा-पत्ती एकत्रित करना जरुरी होता था। उसके पश्चात गोठ की सफाई। शाम होते ही ओखल में धान कूटने होते थे। तब आज की तरह बिजली नहीं होती थी, चीड़ के छिलके के रोशनी करते थे। धान कूटकर घर की रसोई में खाना बनाना होता था। आमा कहती हैं कुछ इसी तरह की होती थी उनकी दिनचर्या।
वे फिर कहती थी अब समय धीरे-धीरे समय बदल रहा है। ब्वारियों के लिए अब पहले जैसी तवाही नहीं रही। अब सुविधाएं हो गई हैं। घर के पास ही चक्कियां गेहूं पीसने के लिए उपलब्ध हैं। घरों में अब लोग जानवरों को कम रखने लगे हैं।'
आमा की इन बातों को सुनते-सुनते हमारे आंखों में नींद होती। बातें खत्म होते ही हम नींद की आगोश में होते।
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आज के दौर में बच्चों के हाथों में स्मार्टफोन है, जिस उम्र में उन्हें आमा-बूबू (दादी-दादा) के मुँह से कहानियां, लोरियां सुननी चाहिए, वे मोबाइल में तरह-तरह के वीडियो देख रहे हैं। इससे वे मानसिक स्वास्थ्य में कमजोर तो हो रहे हैं, साथ ही वे दादा-दादी से मिलने वाली सीख, संस्कृति और अच्छी आदतों से दूर होते जा रहे हैं।