उत्तराखण्ड की भूमि अपनी लोक संस्कृति, परंपराओं और विभिन्न पर्वों की समृद्ध विरासत के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ हर त्योहार केवल उत्सव नहीं, बल्कि लोकजीवन, आस्था और यहाँ के लोगों की वीरता का प्रतीक भी है। इन्हीं पर्वों में से एक है इगास-बग्वाल, जिसे दीपावली के ठीक 11 दिन बाद बड़े उमंग और उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह पर्व गढ़वाल में वीरता, लोकगाथाओं और सामूहिकता प्रतीक है, जो हमें अपनी सांस्कृतिक जड़ों और गौरवशाली इतिहास से जोड़ता है।
Igas Bagwal 2025
इस वर्ष उत्तराखंड में इगास-बग्वाल शनिवार, दिनांक 01 नवंबर 2025 ( कार्तिक शुक्ल एकादशी) को पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ मनाया जायेगा। इस दौरान मंडाण और भैलो खेलने की ख़ास परम्परा का इंतजार लोगों को बेसब्री से रहता है।
इगास बग्वाल के अवसर पर यहाँ गौ-वंश की पूजा करने और रात को भैलो खेलने, वर्त खींचने की विशिष्ट परम्परा है। लोग थड़िया, चौफुला, झुमैलो जैसे लोक नृत्य-गीतों का आनंद लेकर एक दूसरे के साथ अपनी ख़ुशी का आदान-प्रदान करते हैं। इस अवसर पर पूड़ी, स्वाली, भूड़ा, पकौड़ी आदि पकवान बनाकर बांटा जाता है।
लोक मान्यताएं
इगास बग्वाल मनाने के पीछे लोगों की अलग-अलग मान्यताएं हैं। एक मान्यता श्रीराम से जुड़ी है, जिसमें कहा जाता है कि लंका विजय के बाद मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम के अयोध्या पहुँचने की सूचना पहाड़ों में देर से पहुँची और लोगों ने देव दीपावली यानी हरिबोधिनी एकादशी के दिन इगास बग्वाल के रूप में अपनी खुशियां मनायी।
वहीं गढ़वाल में इगास बग्वाल को वीर भड़ माधो सिंह भंडारी के तिब्बत फतह के बाद घर लौटने की ख़ुशी से भी जोड़कर देखा जाता है। आइये विस्तृत में पढ़ते हैं-
बारह ए गैनी बग्वाली मेरो माधो नि आई,
सोलह ऐनी श्राद्ध मेरो माधो नी आई।
यानी बारह बग्वाल चली गई, लेकिन मेरा माधो सिंह लौटकर नहीं आया। सोलह श्राद्ध आकर चले गए, लेकिन मेरे माधो सिंह का अब तक कोई पता नहीं है।
माधो सिंह भंडारी 17वीं शताब्दी में मलेथा गांव के रहने वाले एक वीर भड़ यानि योद्धा थे। वे राजा महीपत साह, फिर रानी कर्णावती और फिर पृथ्वीपति साह के वजीर और सेनापति भी रहे। बात उस समय की है जब गढ़वाल और तिब्बत के बीच अक्सर युद्ध हुआ करते थे। तिब्बत के दापा पहाड़ों की बर्फ पिघलते ही गढ़वाल के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में आकर लूटपाट करते थे। इससे छुटकारा पाने के लिए माधो सिंह भंडारी ने तिब्बत के इन सरदारों से दो-तीन युद्ध लड़े और मुनारे (स्तंभ) खड़े कर सीमा का निर्धारण किया।
कहा जाता है कि एक बार वे तिब्बत युद्ध में इतने उलझ गए कि वे दीपावली के अवसर पर राजधानी श्रीनगर नहीं पहुँच पाए। स्थानीय लोगों को आशंका हो गयी थी कि वे युद्ध में शहीद हो गए होंगे। तब इस वजह से गढ़वाल में दीपावली नहीं मनाई गई।
दीपावली से कुछ दिन बाद माधो सिंह भंडारी की युद्ध में विजय और सुरक्षित होने का समाचार श्रीनगर गढ़वाल पहुंचा और राजा की सहमति पर यहां सामूहिकता के साथ एकादशी के दिन दीपावली मनाने की घोषणा हुई। तभी से आज तक कार्तिक शुक्ल एकादशी पर गढ़वाल में इगास बग्वाल मनाई जा रही है। जो दीपावली के ठीक 11 दिन बाद आता है।
प्रमुख परंपराएं
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- भैलो खेलना: यह सबसे खास परंपरा है, जिसमें ग्रामीण चीड़ या अन्य लकड़ियों की मशालें (भैलो) बनाकर उन्हें हवा में घुमाते हैं।
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- गौ वंश की पूजा: इस त्योहार के अवसर पर गायों और बैलों को जौ के पिंड खिलाये जाते हैं, उनके सींगों पर तेल मला जाता है और उनकी पूजा की जाती है।
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- लोकगीत और नृत्य: इगास बग्वाल की शाम ढोल-दमाऊ की थाप पर पारंपरिक लोक नृत्य थड़िया, चौफुला, झुमैलो आयोजित किये जाते हैं, जिनमें पांडव नृत्य भी शामिल हो सकता है।
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- पारंपरिक पकवान: घरों में स्वाली, भूड़ी, पूड़ी, खीर जैसे स्वादिष्ट व्यंजन बनाए जाते हैं और उन्हें आपस में बांटा जाता है।
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- रक्षासूत्र: कुछ क्षेत्रों में रक्षाबंधन पर बंधे रक्षासूत्र को बछड़े की पूंछ पर बांधने और मन्नत मांगने की भी परंपरा है।
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- बर्त खींचना: गढ़वाल क्षेत्र में सामूहिक शक्ति और मेलजोल दिखाने के लिए मोटी रस्सी ‘बर्त’ को सामूहिक रूप से खींचा जाता है।
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इगास बग्वाल केवल एक पर्व नहीं, बल्कि उत्तराखण्ड की लोकआस्था, वीरता और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। यह पर्व हमें अपनी परंपराओं, पूर्वजों के साहस और सामूहिक जीवन मूल्यों की याद दिलाता है। आधुनिकता की दौड़ में भी इगास की यह परंपरा लोगों को अपनी मिट्टी से जोड़ने का कार्य करती है। यह पर्व हमें सिखाता है कि अपनी जड़ों से जुड़ा रहना ही हमारी असली पहचान और हमारा सबसे बड़ा गौरव है।