खतड़वा त्योहार क्यों मनाया जाता है ? जानें सच और भ्रांति।

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उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में हर वर्ष शरद ऋतु की शुरुआत पर मनाया जाने वाला खतड़वा पर्व (खतड़वा/ गै-त्यार) सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि लोकजीवन, पशुधन और प्रकृति से जुड़ी मान्यताओं का प्रतीक है। इसे लेकर कई तरह की कहानियाँ और मान्यताएँ प्रचलित हैं—कुछ लोग इसे पशुओं की कुशलता की कामना और ऋतु परिवर्तन का पर्व मानते हैं, तो कुछ इसे कुमाऊँ और गढ़वाल के राजाओं के बीच हुए कथित युद्ध से जोड़ते हैं। लेकिन क्या वास्तव में इस त्योहार के पीछे कोई ऐतिहासिक प्रमाण है, या यह केवल भ्रांति भर है? आइए जानते हैं खतड़वा पर्व के पीछे छिपे सच और भ्रांतियों की परतें।

कब और क्यों मनाया जाता है खतड़वा?

  • खतड़वा त्यार आश्विन माह की प्रथम तिथि (कन्या संक्रांति) को मनाया जाता है। इसे 'गै-त्यार' के नाम से भी जानते हैं। 
  • कुमाऊँ के पर्वतीय अंचलों में इसे शरद ऋतु की प्रथम संध्या का उत्सव माना जाता है।
  • यह पर्व हर वर्ष प्रायः 17 सितम्बर (या एक दिन आगे-पीछे) मनाया जाता है।

इस समय वर्षा ऋतु समाप्त होकर शरद ऋतु का आरंभ होता है। इस कारण इसे ऋतु परिवर्तन का पर्व और पशुओं के स्वास्थ्य व सुरक्षा की मंगलकामना का दिन माना गया है।

“खतड़वा” शब्द ‘खातड़’ या ‘खातड़ि’ से निकला है, जिसका अर्थ होता है आवरण। सितंबर से ही पहाड़ों में ठंड बढ़ने लगती है और लोग गर्म कपड़ों का प्रयोग शुरू कर देते हैं। इसलिए खतड़ुवा को शरद ऋतु के आगमन का प्रतीक भी माना जाता है।

खतड़वा त्यौहार की परंपराएँ

  • इस अवसर पर सर्वप्रथम गौशालाओं की सफाई की जाती है और जानवरों के लिए पर्याप्त मात्रा में सूखी पत्तियां बिछाई जाती हैं। ताकि वे अच्छे से आराम कर सके। 
  • इस दिन प्रातः घर की महिलाएं लंबी घास को काटकर एक छोटा सा गट्ठर बनाती हैं। फिर उसे तीन भागों में बाँटकर उन्हें अलग-अलग गूंथकर कद्दू आदि के सुन्दर पीले फूलों से सजाती हैं। इस आकृति को गौशाला के पास गोबर के ढेर पर गाड़ दिया जाता है। जिसे बुढ़ी कहा जाता है। 
  • गाँव के बच्चे और युवा किसी ऊँचे स्थान पर लकड़ी और सूखी घास का ढेर तैयार करते हैं।
  • इस दौरान वहां पर बच्चे एक छोटा सा पत्थरों का थान (मंदिर) बनाते हैं और वहां पर अपने मवेशियों की आकृति रखते हैं,  जो पत्थरों या फलों के होते हैं। 
  • कुशा घास के सफ़ेद फूलों को एकत्रित कर एक डंडे पर बंधा जाता है। 
  • एक बड़े से बिच्छू घास की टहनी काटकर लाई जाती है। 
  • त्योहार की शाम को मशालें प्रज्जवलित की जाती हैं। 
  • मशाल, बिच्छू घास और कुशा घास के फूलों से बने लंबे झाड़ूनुमा डंडे को गोठ (गौशाला) के अंदर घुमाया जाता है और बुढ़ी निकाली जाती है। बच्चों द्वारा जोर-जोर से यह कहा जाता है - खतड़ुआ भ्यैर निकल यानि खतड़ुआ बाहर निकालो। 
  • यह प्रक्रिया गांव के सभी गौशालाओं के अंदर किया जाता है और उस गौशाला के स्वामी द्वारा उन्हें (बच्चों को) धान के सिरौली, आग में भुने मक्के, ककड़ी और अखरोट दिए जाते हैं। 
  • बच्चों द्वारा बनाई किसी धार में (ऊँचे स्थान में ) बनाये सूखी घास और लकड़ियों के ढेर में आग लगाकर रोग-व्याधि के प्रतीक बुढ़ी जलाई जाती है और अपने मवेशिओं की कुशलता की कामना की जाती है। 
  • बच्चे इस अवसर पर ककड़ी, मक्के और अखरोट का प्रसाद बाँटते हैं। 

इस अवसर पर पारंपरिक लोक पंक्तियाँ कही जाती है- 

भैलो खतड़ुवा भैलो,
गाय की जीत, खतड़ुवा की हार,
भाग खतड़ुवा भाग।

यह पर्व कुमाऊँ के अलावा नेपाल, दार्जिलिंग, सिक्किम के पशुपालकों द्वारा भी नामय जाता है। नेपाल में इस दिन सामूहिक रूप से कहा जाता है:

“लुतो लाग्यो, लुतो भाग्यो।”

(अर्थ: बरसात में जानवरों को होने वाली लुत  (खुजली जिसमें बाल गिर जाते हैं ) बीमारी समाप्त हो जाए।)

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खतड़ुवा त्योहार की शुभकामनायें। 

इतिहास और मिथक

खतड़वा त्यौहार( Khatarua) मनाने के पीछे एक ऐसा मत भी है जिसका इतिहास में कोई प्रमाण और उल्लेख नहीं। यह सिर्फ एक भ्रांति है, जिसमें कहा जाता है कि कुमाऊँ और गढ़वाल के राजा के बीच एक युद्ध हुआ था। इसमें कुमाऊँ की ओर से सेनापति गैड़ा सिंह और गढ़वाल की ओर से खतड़ सिंह लड़े। इस युद्ध में खतड़ सिंह की हार के बाद इस त्योहार को मनाने की शुरुआत हुई।

लेकिन ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार, खतड़ सिंह या गैड़ी सिंह नाम का कोई सेनापति या राजा नहीं मिलता। हाँ, गाय चंद्रवंश का राजकीय प्रतीक अवश्य थी। स्पष्ट है कि यह कहानी एक भ्रांति है और पर्व का वास्तविक स्वरूप कहीं अधिक प्राचीन है।

राजवंशों के वैमनस्य का प्रतीक

  • मध्यकाल में यह त्योहार चंद्रवंश और पंवारवंश के बीच के संघर्ष का प्रतीक बन गया।
  • यह वास्तव में दो संस्कृतियों का संघर्ष नहीं था, बल्कि दो राजवंशों की महत्वाकांक्षाओं को जनमानस पर थोपने का परिणाम था।
  • युद्ध की मानसिकता ने कुमाऊँ और गढ़वाल के जनमानस में एक खाई उत्पन्न की, जबकि खतड़ुवा का मूल स्वरूप कहीं अधिक पुराना और शुद्ध रूप से पशुधन व प्रकृति का पर्व है।

विदेशी प्रभाव और प्राचीन परंपरा

इतिहासकारों का मानना है कि खतड़वा का स्वरूप केवल स्थानीय नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक संपर्कों से भी प्रभावित हो सकता है।

  • प्राचीन भारत से रेशम का निर्यात सिल्क रूट द्वारा रोम और मध्य एशिया तक होता था।
  • संभव है कि यह पर्व उन्हीं सांस्कृतिक आदान-प्रदान से पर्वतीय अंचलों में आया हो।
  • 306 ईस्वी में रोम सम्राट कॉन्स्टेन्टाइन ने इसी प्रकार का एक त्योहार मनाया।
  • 326 ईस्वी में राजमाता हेलेना द्वारा ईसा मसीह के सूली उद्धार के अवसर पर पर्वतों में अग्नि प्रज्ज्वलित करने के प्रमाण मिलते हैं।
  • सीरिया और हब्श (इथियोपिया) में भी इसी दिन अग्नि प्रज्ज्वलित कर उत्सव मनाने की परंपरा है। इथियोपिया में इसे मस्कल कहा जाता है।
  • खतड़वा पर्व में बनायी जाने वाली आकृति का क्रॉस (+) चिह्न इन प्रभावों की ओर संकेत करता है।

यहाँ तक कि कुमाऊँनी भाषा में प्रयुक्त कुछ शब्द जैसे “च्यल” और “सैणी”, रोम की प्राचीन भाषा में भी मिलते हैं। यह संभवतः प्राचीन सांस्कृतिक संपर्क का प्रमाण हो सकता है।

वैज्ञानिक महत्व

  1. गोशालाओं की सफाई और धुआँ करने से कीड़े-मकोड़े तथा रोगाणु नष्ट होते हैं।
  2. पशुओं को पोषणयुक्त आहार और स्वच्छ वातावरण मिलते ही वे अधिक स्वस्थ रहते हैं।
  3. सामूहिक रूप से त्योहार मनाने से सामाजिक एकता और सांस्कृतिक पहचान मजबूत होती है।
  4. इस दौरान मक्के, ककड़ी, अखरोट, कच्चे धान के सिरौली खाने की परम्परा है जो बेहद पौष्टिक होते हैं। 

निष्कर्ष

खतड़वा केवल एक पर्व नहीं, बल्कि प्रकृति, पशुधन और लोक की कृतज्ञता का प्रतीक है।

  • यह पर्व शरद ऋतु के स्वागत का उत्सव भी है।
  • इसमें सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और वैज्ञानिक सभी पहलू जुड़े हुए हैं।
  • विदेशी संस्कृतियों के संभावित प्रभाव इसे और भी विशिष्ट बनाते हैं।

आज आवश्यकता है कि इस पर्व पर और अधिक शोध व अध्ययन हो, ताकि इसके प्राचीन स्वरूप और वैश्विक सांस्कृतिक जुड़ाव को और अच्छे से समझा जा सके। अंत में कुमाऊँ के प्रसिद्ध कवि बंशीधर पाठक 'जिज्ञासु' की ये पंक्तियाँ पढ़ें और चिंतन करें - 

अमरकोश पढ़ी, इतिहास पन्ना पलटीं, खतड़सिंग न मिल, गैड़ नि मिल।
कथ्यार पुछिन, पुछ्यार पुछिन, गणत करै, जागर लगै,
बैसि भैट्य़ुं, रमौल सुणों, भारत सुणों, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल,
स्याल्दे-बिखौती गयूं, देविधुरै बग्वाल गयूं, जागसर गयूं, बागसर गयूं,
अलम्वाड़ कि नन्दादेवी गयूं, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल।

अर्थात अमरकोश पढ़ा, इतिहास के पन्ने पलटे लेकिन वहां न खतड़ सिंह मिला, न गैड़ सिंह मिला। लोक कथाओं के ज्ञाताओं से पूछा, पारंपरिक लोक विधा 'पूछ' करने वालों से पूछा, गणना करवाई , जागर लगवाये, बैसी गए, रमौल सुना, बेरमो भारत सुना लेकिन वहां भी न खतड़ सिंह मिला और न गैड़ सिंह। स्याल्दे-बिखौती मेले गये, देवीधुरा के बग्वाल गए, जागेश्वर और बागेश्वर गए, नंदा देवी अल्मोड़ा गए, वहां भी न खतड़ सिंह मिला और न ही गैड़ सिंह ।