स्याल्दे-बिखौती मेला-सूर्य संस्कृति के उपासकों का मूल पर्व।

syalde bikhauti mela

स्याल्दे बिखौती  (Syalde Bikhauti) का मेला शिव और उनकी शक्ति की समवेत रूप से मेला मनाने की लोक संस्कृति है। इसे पुरुष और प्रकृति के सम्मिलन का पर्व भी कह सकते हैं पर केवल मात्र स्याल्दे बिखौती का मेला ही उत्तराखण्ड का एक मात्र ऐसा मेला है जो शिव और शक्ति के सम्मिलन को लक्ष्य करके एक साथ दो मंदिरों- शिव के मंदिर विभांडेश्वर में तथा शक्ति के मंदिर शीतला देवी के प्रांगण में संयुक्त रूप से आयोजित किया जाता है। किन्तु इस पर्व की मूलभावना सूर्यपूजा के इतिहास से जुड़ी है, जिसका प्राचीन प्रमाण विभांडेश्वर माहात्म्य में मिलता है। उसके बाद कत्यूरी राजाओं के काल में इस पर्व के साथ शिव और शक्ति के सम्मिलन का इतिहास जुड़ा और अंत में तीसरे चरण चन्द राजाओं के काल में शीतला देवी के मंदिर में योद्धा समूहों के द्वारा सामरिक युद्ध प्रयाण की शैली में 'ओड़ा भेटने' की प्रथा शुरू हुई। इस प्रकार तीन तीन चरणों के कालखंड की ऐतिहासिकता लिए हुए स्याल्दे बिखौती का मेला कुमाऊं के धार्मिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक इतिहास की भी अमूल्य धरोहर है। (Syalde Bikhauti Mela)


बैसाख माह की संक्रांति को मनाया जाता है बिखौती-

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार प्रत्येक वर्ष बैसाख माह के पहली तिथि को भगवान सूर्यदेव अपनी श्रेष्ठ राशि मेष राशि में गोचर करते हैं। इस ज्योतिषीय स्थिति के कारण 'विषुवत संक्रांति' को लोक भाषा कुमाऊनी में 'बिखोती' कहते हैं। विषुवत संक्रांति को विष का निदान करने वाली संक्रांति भी कहा जाता है। कहा जाता है, इस दिन दान स्नान से खतरनाक विष का निदान हो जाता है। विषुवत संक्रांति के दिन गंगा स्नान का महत्व  बताया गया है। 

 

स्याल्दे और बिखौती - 

इस मेले के प्राचीन परम्परागत इतिहास का अवलोकन किया जाए तो संस्कृत 'विषुवत' शब्द दुदबोलि कुमाऊंनी में 'बिखोती' कहा जाने लगा। जहां तक 'स्याल्दे' शब्द है यह द्वाराहाट के कत्यूरी राजाओं द्वारा आराध्य 'शीतला देवी' का ही स्थानीय रूप है। इस प्रकार यह स्याल्दे बिखोती मेला दो धार्मिक आस्थाओं मां शीतला देवी और भगवान् शिव की आराधना को समर्पित दो पर्वों से प्रेरित एक संयुक्त त्रिदिवसीय मेला है। विषुवत संक्रांति के दिन रात्रि को विभांडेश्वर महादेव के प्रांगण में बिखोती का त्योहार मनाया जाता है और प्रातः काल सुरभि नदी के तट पर स्नान ध्यान किया जाता है। उसके बाद एक दिन छोड़ कर वैसाख 2 गते को द्वाराहाट के शीतला देवी के मंदिर प्रांगण में ओडा भेटने की परंपरा का निर्वहन करते हुए एक विशाल 'स्याल्दे' मेला लगता है, जिसका मुख्य आकर्षण ओड़ा भेटने की परंपरा है।


सूर्य संस्कृति के उपासकों का मूल पर्व- 

गौरतलब है कि कुमाऊं उत्तराखण्ड में 'स्याल्दे बिखौती’ 'Syldey Bikhoti' का पर्व कृषिजीवियों और पशुपालकों का भी मुख्य पर्व है। इस पर्व का शुभारंभ 'बिखौती' के पर्व से होता है जिसे 'विषुव संक्रांति' के नाम से भी जाना जाता है। यही त्योहार पंजाब में ‘वैसाखी’ के नाम से प्रसिद्ध है तो बिहार व उत्तरप्रदेश में इसे ‘विषुआ’, असम में ‘बिहू’ और उड़ीसावासी इसे ‘महाविषुव’ संक्रांति के रूप में मनाते हैं। ‘बिखोति’ हो या ‘वैसाखी’ या फिर ‘बिहू’ अथवा ‘महाविषुव’ संक्रांति सभी त्योहार सूर्य की ज्योतिषीय अथवा खगोलीय स्थिति के अनुसार मनाए जाते हैं। भारत मूलतः सूर्योपासकों का देश होने के कारण यहां ‘वैसाखी’ या विषुव संक्रांति का पर्व विभिन्न प्रान्तों में विशेष उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है क्योंकि यह तिथि सूर्य द्वारा बारह राशियों के संवत्सर-चक्र को पूर्ण करके नए संवत्सर-चक्र में प्रवेश करने की तिथि भी है।


पंचाग पद्धति के अनुसार विषुव संक्रांति के दिन से सूर्य पुराने संवत्सर-चक्र की अन्तिम बारहवीं मीन राशि से संक्रमण करता हुआ नए संवत्सर-चक्र की पहली मेष राशि में प्रवेश करता है। इसलिए वैशाख मास की इस संक्रांति को ‘मेष संक्रांति’ के नाम से भी जाना जाता है। बंगाल और दक्षिण भारत के अनेक प्रान्तों में नववर्ष का आरंभ वैशाख की प्रथम तिथि प्रायः14-15 अप्रेल से ही माना जाता है। बिखौती त्यौहार को विशेषकर सुरभि नदी के तट पर बसे विभांडेश्वर क्षेत्र में 'बुड़ त्यार' के रूप में भी जाना जाता है। 'बुड़ त्यार' का मतलब होता है, बूढ़ा त्यौहार। इस बिखोती के पर्व के साथ इस 'बुड़ त्यार' के माहात्म्य को खोजना हो तो इसके साथ सूर्य पूजा की  प्राचीन स्मृतियां भी जुड़ी हैं,जिसे जनमानस द्वारा आज पूरी तरह भुला दिया गया है। किन्तु हमारे प्राचीन ग्रन्थों में आज भी सूर्य पूजा के प्राचीन प्रमाण उपलब्ध हैं। 'मानसखंड' के अंतर्गत विभांडेश्वर माहात्म्य में सूर्यक्षेत्र नामक तीर्थ का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। किन्तु उत्तरोत्तर काल में विषुवत संक्रांति के दिन सुरभि नदी में सूर्यदेव का स्नान माहात्म्य विभांडेश्वर महादेव के बिखोती मेले के साथ जोड़ दिया गया, जिससे इस पर्व के साथ सूर्य उपासना का महत्त्व भी भुला दिया गया।

गौरतलब है कि 'मानसखंड' में द्वाराहाट या उत्तर द्वारिका का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है क्योंकि जब गुप्तकाल के लगभग इस स्कंदपुराण के मानस खंड की रचना हुई थी,तब द्वाराहाट में कत्यूरी राजाओं का शासन नहीं था। इसलिए तब द्वाराहाट के मंदिरों का धार्मिक महत्त्व भी स्थापित नहीं हो सका था। किन्तु द्रोणगिरि तीर्थ, विभांडेश्वर तीर्थ और नागार्जुन तीर्थ का विशेष माहात्म्य मानसखंड' में वर्णित है।'मानसखंड' के तीसवें अध्याय में द्रोणगिरि पर्वत से और नागार्जुन पर्वत से क्रमशः नन्दिनी और सुरभि इन दो महानदियों का वर्णन आया है। इस भौगोलिक पृष्ठभूमि में सुरभि नदी के प्रमुख तीर्थों की गवेषणा करें तो 'वृद्ध विभांडेश्वर' तीर्थ और उसके बाद 'सूर्यतीर्थ' का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। 

प्राचीन काल में इन दोनों तीर्थों के दर्शन करने के बाद तीर्थयात्री नन्दिनी और सुरभि नदियों के संगम पर विभांडेश्वर महादेव के दर्शन करते थे, जिसे 'ब्रह्मक्षेत्र' की भी संज्ञा  दी गई है। मानसखंड' के 30वें अध्याय में ऋषिगण जब महर्षि वेद व्यास से सुरभि नदी के तीर्थों के बारे में जानने की जिज्ञासा रखते हैं तो महर्षि वेद व्यास उन्हें इस सुरभि नदी के तीर्थो के बारे में बताते हैं,जिनमें सबसे पहला है सुरभि देवी का तीर्थ,उसके बाद दाहिनी ओर गुफा में वृद्ध विभांडेश महादेव तीर्थ है। उसके बाद वेद व्यास जी ने 'सुरभी' नदी के मध्य सूर्यतीर्थ का वर्णन किया है,जहां स्नान करने से मनुष्य समस्त पातकों से मुक्त हो जाता है-

"ततो वामे महादेवी सुरभी नाम वै द्विजाः ।
सम्पूज्य मानवः सम्यक् सर्वान् कामानवाप्नुयात्॥
दक्षिणे मुनिशार्दूला गुहायां वृद्धसंज्ञकम् ।
विभाण्डेशं महादेवं सम्पूज्य शिवमाप्नुयात् ॥ 
ततस्तु सुरभीमध्ये सूर्यतीर्थमिति स्मृतम् ।
तत्र स्नात्वा च मनुजः पातकाद्विप्रमुच्यते ॥"
                  -मानसखंड,30.8-10 

मानसखंड के उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कत्यूरी काल में स्याल्दे बिखोती मेले की शुरुआत होने से पहले सुरभि नदी का सूर्यक्षेत्र एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान रहा था जहां भगवान् सूर्य देव की और वृद्ध विभांडेश्वर की साथ-साथ पूजा की जाती थी। इसके अलावा सुरभि नदी का जालली सूरे ग्वेल तक का समूचा क्षेत्र भी सूर्य क्षेत्र कहलाता था। आज जहां 'सूरेखेत' बसा है प्राचीन सूर्यक्षेत्र का ही स्थानीय नाम है और ग्राम सूरे तथा सूरे ग्वेल भी प्राचीन 'सूर्यक्षेत्र' के स्थानीय नाम हैं।इससे जान पड़ता है कि इस क्षेत्र में सूर्य उपासना बहुत लोकप्रिय थी और विषुवत संक्रांति यानी बिखोति की रात में विभांडेश्वर का मेला लगता था और प्रातःकाल लोग सुरभि नदीं के मध्य सूर्य तीर्थ में स्नान करते थे। आज लोग जहां कपिला गाय की शिला के पास स्नान करते हैं सम्भवतः यही स्थान और इसके आस-पास की गुफा वृद्ध विभांडेश्वर तीर्थ कहलाते होंगे। जनश्रुतियों में बिखोति को 'बुड त्यार' कहने का यही तात्पर्य रहा होगा और विषुवत संक्रांति को यहां सूर्य देव एवं वृद्ध विभांडेश की विशेष पूजा अर्चना की जाती होगी। धार्मिक तीर्थस्थानों के पूर्व माहात्म्य कैसे लुप्त हो जाते हैं और उत्तरवर्ती इतिहास अपने पूर्ववर्ती इतिहास पर कैसे हावी हो जाता है,उसका सुंदर और ऐतिहासिक उदाहरण स्याल्दे बिखोती का मेला है।

यहां गांव के बड़े बूढे लोग बताते हैं, कि विषुवत संक्रांति के दिन बिखौती त्यौहार के बाद लगभग 3 माह के अंतराल बाद कोई त्योहार आता है। यानी सूर्य भगवान के उत्तरायण में स्थित होने के बाद यह अंतिम त्यौहार होता है। इसके 3 माह बाद पहाड़ में हरेला त्योहार आता है। हरेला त्योहार सूर्य भगवान कि दक्षिणायन वाली स्थिति में पड़ता है। अपने उत्तरायण की सीरीज का अंतिम त्यौहार होने की वजह से भी इसे कुमाऊँ की लोकभाषा मे 'बुड़ त्यार' का यह मतलब पुराने त्योहार से भी रहा हो सकता है, जिसका प्रचलन अब नहीं रहा।

हमें अपने देश के उन आंचलिक पर्वों और त्योहारों का विशेष रूप से आभारी होना चाहिए जिनके कारण भारतीय सभ्यता और संस्कृति की ऐतिहासिक पहचान आज भी सुरक्षित है। उत्तराखण्ड का ‘बिखोति’ पर्व हो या बिहार का ‘विषुआ अथवा उड़ीसा का ‘महाविषुव’ संक्रांति या असम का ‘बिहू’ पर्व केरल का ‘ओणम’ पर्व हो या फिर कर्नाटक की ‘रथसप्तमी’ सभी त्योहार इस तथ्य को सूचित करते हैं कि भारत मूलतः सूर्य संस्कृति के उपासकों का देश है तथा बारह महीनों के तीज-त्योहार भी यहां सूर्य के संवत्सर चक्र के अनुसार मनाए जाते हैं।

‘पर्व’ का अर्थ है गांठ या जोड़ और संक्रांति संक्रमण को कहते हैं। भारत का प्रत्येक पर्व एक ऐसी सांस्कृतिक धरोहर का गठजोड़ है जिसके साथ पौराणिक परम्पराओं के रूप में प्राचीन कालखण्डों के इतिहास और संस्कृति की अति दीर्घकालीन कड़ियां जुड़ी हुई हैं तो साथ ही संक्रांतियों की काल गणना ऋतु परिवर्तन की सूचक भी हैं।‘विषुव संक्रांति’ भी ऋतु परिवर्तन का एक सुहाना पर्व है।

विक्रम संवत्सर का पहला महीना-चैत्र कहलाता है। इसी महीने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नववर्ष का आरम्भ हो रहा होता है और समस्त देशवासी मां जगदम्बा दुर्गा के वासन्तिक नवरात्र पूजा के अनुष्ठान में तल्लीन रहते हैं। इस प्रथम महीने में नववर्ष के स्वागत की उत्कंठा रहती है। मनुष्य ही नहीं देवताओं, बड़े-बूढ़ों और मवेशियों तक के लिए यह वासंतिक ऋतु हर्ष और उल्लास की मादकता बिखेरने लगती है। भावों का सहजोल्लास गीतों के रूप में स्वयं फूटने लगता है। चैत्र-वैशाख का महीना आते ही वासन्तिक रंग-रंगीली ऋतु का स्वागत करने के लिए तरह तरह के वाद्ययंत्र दमुवा, हुड़का, रणसिंग, बीनबाजा सब एक साथ थिरकने लगते हैं और इन वाद्ययंत्रों के साथ संगत करने लगते हैं नृत्य करते स्त्री-पुरुष,बड़े-बूढे और उमंग से भरे नव युवक-नव युवतियां। हर्षोल्लास पूर्ण इस वातावरण में झोड़ों, लोकगीतों और भगनौल आदि गीत-संगीत का दौर शुरु हो जाता है। लोग एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर और कदम से कदम मिलाते हुए सामूहिक स्वर से झोड़े, गीत, भगनौल आदि गाकर हर्ष और आनन्द मनाते  हैं।

उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति हिमालय प्रकृति के गोद में रची बसी और फली फूली संस्कृति है। यहां की प्रकृति अत्यन्त उदार है परन्तु कहीं-कहीं कठोर भी है। जलवायु कहीं अत्यधिक शीत प्रकृति की है तो कहीं बहुत उष्ण है। भिकियासैंण, मासी, चौखुटिया, द्वाराहाट और बागेश्वर की घाटियां दिन में बहुत गरम होती हैं और रात को ठंडी हो जाती हैं। प्रकृति के इस विरोधात्मक रूप ने कुमाऊं उत्तराखण्ड के लोक धर्म और लोक संस्कृति में भी अनेक विरोधी तत्त्वों को समाविष्ट कर लिया है। प्रकृति परमेश्वरी की अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों प्रकार की परिस्थितियों ने इस संस्कृति को शिव और उनकी शक्ति का उपासक बना दिया। स्याल्दे बिखौती का मेला भी शिव और उनकी शक्ति को एक साथ मिला कर मेला मनाने की  लोक संस्कृति है। पर केवल मात्र स्याल्दे बिखौती का मेला ही उत्तराखण्ड का एक मात्र ऐसा मेला है जो शिव और शक्ति के संमिलन को लक्ष्य करके एक साथ दो मंदिरों - शिव के मंदिर विभांडेश्वर में तथा शक्ति के मंदिर शीतला देवी के प्रांगण में संयुक्त रूप से आयोजित किया जाता है।

असल में प्रकृति के प्रांगण में हुए इस ऋतुपरिवर्तन का कारण ‘विषुव संक्रांति’ का लोक लुभावन आगमन ही है। भारतीय त्योहार ज्यादातर ऋतु परिवर्तन के समारोह हैं। हमारे अधिकांश उत्सव शरद और वसंत ऋतुओं में मनाए जाते हैं। ये दोनों ही मनभावन ऋतुएं हैं। शरद ऋतु वर्षा के बाद आती है और वसंत कंपकंपाती ठंड से निजात दिलाती है। इसलिए दोनों ही ऋतुएं उत्सवों के अनुकूल पड़तीं हैं। इस समय भारतीय किसान कृषि कार्य से मुक्त रहते हैं। उत्सव मनाने का यह भी एक खास कारण हो जाता है। 

चैत्र-वैशाख के महीनों में शीत को विदाई देकर लौटती हुई सुहानी हवा, बुरांश प्योली आदि से कुसुमित वन-उद्यान, कोयल,घुघुती की आवाज से गूंजता परिवेश-ये सभी प्रकृति के दूत बन कर मानो स्याल्दे बिखोति की अगवानी में लग जाते हैं। ललनाओं के रक्तिम हेमवर्णी चंचल वस्त्र, पिछौड़ और हंसूली, नथूली, मूंगे की माला जैसे पारंपरिक आभूषण इस स्याल्दे बिखोति के सौंदर्य में  चार चांद लगाते प्रतीत होते हैं। द्वाराहाट के इस रंग-रंगीले कौतिक के उल्लास से हमारी सभी ज्ञानेंद्रियां ही तृप्त नहीं होतीं, हमारा मन भी बाग-बाग हो उठता है। ऐसे में समझा जा सकता है कि कोई लोक गायक क्यों कह रहा है कि इस बिखोति के मेले में उसकी दुर्गा कहीं खो गई है-

"अलघतै बिखोति म्येरि दुर्गा हरै ग्ये।
 चहानै चहानै म्येरि आंखि पटै ग्ये।।"

स्याल्दे-बिखौती हो या उतरैणी,रंग-रंगीले मेले प्रकृति और मानव की अंतर्क्रिया का सुपरिणाम हैं। चैत्र-वैशाख संबंध बनाने की ऋतु है, स्याल्दे बिखोति संबंध निभाने का पर्व है। मेले हमें अपने वर्तमान की संवेदना से जोड़ते हैं तथा भविष्य के लिए आश्वस्त भी करते हैं। इससे भी बढ़कर मेलों का योगदान यह है  कि ये हमें अतीत की परंपराओं और क्षेत्रीय रीति रिवाजों से बांध कर रखते हैं। जीवन में हर्ष,उल्लास और सामाजिक समरसता की जिस त्रिवेणी की हम कामना करते हैं स्याल्दे बिखोति जैसे मेले उस त्रिवेणी का सांस्कृतिक अभिषेक हैं। 

लेख -© डा.मोहन चन्द तिवारी