शैलेश मटियानी ...जीवन संघर्ष, साहित्यिक यात्रा, सम्मान और उपलब्धियां
उत्तराखंड में हर वर्ष 5 सितम्बर को शिक्षा के क्षेत्र में उन्नयन एवं गुणात्मक सुधार के लिए उत्कृष्ट कार्य करने वाले शिक्षकों को शैलेश मटियानी पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। इस पुरस्कार को देने की शुरुवात उत्तराखंड में वर्ष 2009 से हुई थी। तब से यह पुरस्कार हर वर्ष सभी पात्र शिक्षाविदों को दिया जा रहा है। यहाँ हम इस महान साहित्यकार के बारे में जानेंगे, जिनके नाम से उत्तराखंड में यह पुरस्कार दिया जाता है।
शैलेश मटियानी नई हिंदी कहानी आंदोलन के प्रमुख कहानीकार और गद्यकार थे। जिन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों में समाज की विषमताओं, पहाड़ की पीड़ा और हाशिये पर जी रहे गरीब तबकों की सच्चाईयों को उतारा और हिंदी साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की। आर्थिक और सामाजिक रूप से शोषित-दलित वर्ग उनकी कहानियों के मुख्य पात्र रहे।
प्रारंभिक जीवन और संघर्ष
शैलेश मटियानी का जन्म 14 अक्टूबर सन 1931 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जनपद स्थित बाड़ेछीना गांव में हुआ था। उनके बचपन का नाम रमेश चंद्र सिंह मटियानी था। प्रारंभिक दौर में वे रमेश मटियानी ‘शैलेश’ नाम से लिखा करते थे। जब वे मात्र बारह वर्ष के थे, तभी उनके माता-पिता का देहांत हो गया। पाँचवीं कक्षा में पढ़ रहे बालक शैलेश को परिस्थितियों ने पढ़ाई छोड़कर बूचड़खाने में काम करने और जुए की नाल उघाने तक मजबूर कर दिया।
संघर्ष भरे बचपन के बावजूद उनकी लेखक बनने की धुन कभी नहीं टूटी। कठिन हालातों में भी उन्होंने पढ़ाई जारी रखी और हाईस्कूल पास किया। सन 1951 में अल्मोड़ा के आभिजात्य समाज की उपेक्षा से तंग आकर वे दिल्ली पहुंचे और वहाँ से इलाहाबाद (प्रयागराज ), बंबई (मुंबई ) और फिर जीवन के विभिन्न पड़ावों पर संघर्ष करते हुए साहित्य की दुनिया में अपना नाम दर्ज कराया।
साहित्यिक यात्रा
शैलेश मटियानी जी में बचपन से ही एक लेखक बनने की धुन थी, जो विकट परिस्थितियों के बावजूद न टूटी। वर्ष 1950 से ही उन्होंने कविताएं, कहानियां लिखनी शुरू कर दी परंतु अल्मोड़ा में उन्हें उपेक्षा ही मिली। हालांकि उन्होंने आरंभिक वर्षों में कुछ कविताएं भी लिखी परंतु वे मूलत एक कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उनकी शुरुआती कहानियां ‘अमर कहानी’ और ‘रंगमहल’ पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। उनका पहला कहानी संग्रह ‘मेरी तैंतीस कहानियां’ (1961) प्रकाशित हुआ।
उनकी प्रमुख कहानियों में ‘डब्बू मलंग’, ‘रहमतुल्ला’, ‘पोस्टमैन’, ‘दो दुखों का एक सुख’, ‘चील’, ‘अर्द्धांगिनी’, ‘महाभोज’ और ‘मिट्टी’ विशेष रूप से चर्चित हैं। खासकर ‘चील’ उनकी आत्मकथात्मक कहानी है, जिसमें भूख और गरीबी की त्रासदी का सजीव चित्रण मिलता है।
उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रहों में ‘दो दुखों का एक सुख’ (1966), ‘नाच जमूरे नाच’, ‘जंगल में मंगल’ (1975), ‘चील’ (1976), ‘प्यास और पत्थर’ (1982) और ‘बर्फ की चट्टानें’ (1990) शामिल हैं।
शैलेश मटियानी के अन्य कहानी संग्रह
- सूखा सागर
- भेड़े और गडरिया
- तीसरा सुख
- दूसरों के लिए
- प्यास और पत्थर लोककथा संग्रह
- भविष्य तथा अन्य कहानियाँ
- सुहागिनी तथा अन्य कहानियाँ
- सफर पर जाने के पहले
- हारा हुआ
- अतीत
- मेरी प्रिय कहानियाँ
- हत्यारे
- पाप मुक्ति
- माता तथा अन्य कहानियाँ
- अहिंसा तथा अन्य कहानियाँ
- आकाश कितना अनंत है
- उसने तो नहीं कहा था
- ऋण
- एक शब्दहीन नदी
- प्रेत-मुक्ति
- रुका हुआ रास्ता
- बित्ता भर सुख
- मैमूद
- मिसेज ग्रीनवुड
उपन्यासकार के रूप में
कहानी लेखन के साथ-साथ शैलेश मटियानी जी ने कई उपन्यास भी लिखे। जिनमें ‘हौलदार’ (1961), ‘चिट्ठी रसेन’ (1961), ‘मुख सरोवर के हंस’, ‘एक मूठ सरसों’ (1962), ‘बेला हुई अबेर’ (1962), ‘गोपुली गफूरन’ (1990), ‘आकाश कितना अनंत है’ और ‘बोरीबली से बोरीबंदर’ उनके चर्चित उपन्यास हैं।
‘मुठभेड़’ (1993) गरीबों और दलितों के शोषण पर आधारित महत्वपूर्ण उपन्यास है, जिसके लिए उन्हें फणीश्वरनाथ रेणु पुरस्कार (1984) से सम्मानित किया गया।
‘चंद औरतों का शहर’ (1992), ‘रामकली’, ‘माया सरोवर’ (1987) और ‘बर्फ गिर चुकने के बाद’ उनके अन्य उल्लेखनीय उपन्यास हैं।
अन्य उपन्यास
- तराई प्रदेश की लोक कथाएँ
- सावितरी
- चम्पावत की लोक कथाएँ
- नागवल्लरी
- जयमाला
- माया सरोवर
- डेरे वाले
- कमीने
- दो बूँद जल
- कबूतरखाना
- चिट्ठीरसैन
- तिरिया भली न काठ की
- किस्सा नर्मदाबेन गंगू बाई
- चौथी मुट्ठी
- बारूद और बचुली
- मुख सरोवर के हंस
- बेला हुई अबेर
- कोई अजनबी नहीं
- भागे हुए लोग
- पुनर्जन्म के बाद
- जलतरंग
- उगते सूरज की किरण
- छोटे-छोटे पक्षी
- रामकली
- सर्पगन्धा
- आकाश कितना अनंत है
- सवित्तरी
- उत्तरकाण्ड, डेरेवाले
- बावन नदियों का संगम
- अर्द्ध कुम्भ की यात्रा
बाल साहित्य
- चुहिया का दूल्हा
- रानी गौरया
- बिल्ली के बच्चे
- योग संयोग
- सिन्धु और गंगा
निबंध और संस्मरण
मटियानी जी ने संस्मरण और निबंध विधा में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। ‘मुख्य धारा का सवाल’, ‘कागज की नाव’ (1991), ‘जनता और साहित्य’ (1976), ‘राष्ट्रीयता की चुनौतियां’ (1997) और ‘किसके राम कैसे राम’ (1999) उनकी चर्चित कृतियां हैं।
- पर्वत से सागर तक
- मुड़ मुड़ कर मत देख
- लेखक की हैसियत
- राष्ट्रभाषा का सवाल
- यदा कदा
- जनता और साहित्य
- यथा प्रसंग
- कभी-कभार
- किसे पता है राष्ट्रीय शर्म का मतलब
- त्रिज्या
- लेखक और संवेदना
गाथाएँ
- बेला हुई अवेर
- मुख सरोवर के हंस
शैलेश मटियानी : सम्मान और उपलब्धियां
हिंदी साहित्य के महान कथाकार शैलेश मटियानी को उनकी रचनात्मकता, संघर्षशीलता और साहित्यिक योगदान के लिए कई सम्मान और उपाधियां प्राप्त हुईं। उन्हें न केवल 'उत्तराखंड का आंचलिक कथाकार' कहा जाता है, बल्कि श्रमजीवी साहित्यकार के रूप में भी जाना जाता है।
प्रमुख उपलब्धियां और सम्मान
- प्रथम उपन्यास ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’ को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत किया गया।
- उनकी कालजयी कहानी ‘महाभोज’ पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का ‘प्रेमचंद पुरस्कार’ प्रदान किया गया।
- वर्ष 1977 में उत्तर प्रदेश शासन की ओर से विशेष रूप से पुरस्कृत।
- उपन्यास ‘मुठभेड़’ के लिए वर्ष 1984 में बिहार के फणीश्वरनाथ रेणु पुरस्कार से सम्मानित।
- उत्तर प्रदेश सरकार का संस्थागत सम्मान।
- देवरिया केडिया संस्थान द्वारा ‘साधना सम्मान’।
- वर्ष 1994 में कुमाऊँ विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट. की मानद उपाधि।
- वर्ष 1999 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा ‘लोहिया सम्मान’।
- वर्ष 2000 में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा ‘राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार’।
जीवन के अंतिम वर्ष और उपेक्षा
इतनी साहित्य साधना के बाद भी ये महान साहित्यकार हमेशा मुफलिसी में ही जिए। जीवन के अंतिम वर्षों में वे हल्द्वानी में रहे और 24 अप्रैल 2001 को दिल्ली के एक अस्पताल में उनका निधन हुआ।
शैलेश मटियानी सिर्फ एक साहित्यकार नहीं बल्कि समाज की आवाज़ थे। उन्होंने जो जिया वही लिखा और यथार्थ के आईने में साहित्य को सजाया। प्रेमचंद के बाद यदि किसी लेखक ने समाज के वंचित वर्गों की पीड़ा को इतने व्यापक स्तर पर अभिव्यक्त किया, तो वह निस्संदेह शैलेश मटियानी ही हैं।