हुड़का : उत्तराखंड के लोकजीवन से जुड़ा वाद्य यंत्र।

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उत्तराखण्ड, जिसे 'देवभूमि' भी कहा जाता है, केवल अपने मंदिरों और प्राकृतिक सौंदर्य के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी समृद्ध लोकसंस्कृति और संगीत के लिए भी जाना जाता है। यहाँ के लोकवाद्य न केवल मनोरंजन के उपकरण हैं, बल्कि वे धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के माध्यम भी हैं। इन्हीं वाद्य यंत्रों में से एक है-हुड़का। 

लोकजीवन से जुड़ा हुड़का

हुड़का केवल एक वाद्य यंत्र नहीं है, बल्कि यह देवताओं के जागरण, लोकगीतों और लोकनृत्य की आत्मा है। उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल अंचलों में विशेष रूप से यह देवी-देवताओं की जागर के अवसर पर प्रयोग होता रहा है। इसे बजाते हुए जब जगरिया (जागर गायक) अपनी थापों के साथ देवता को आह्वान करता है, तो मानो समूचा वातावरण आध्यात्मिक ऊर्जा से भर उठता है।

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हुड़का की बनावट और बजाने की तकनीक

हुड़का का निर्माण पारंपरिक तरीके से किया जाता है। इसका मुख्य ढांचा लकड़ी का होता है जिसे खोखला किया जाता है। इस खोखले ढांचे के दोनों सिरों पर बकरे के आमाशय की झिल्ली मढ़ी जाती है और फिर इन्हें डोरी से आपस में कस दिया जाता है। इस लकड़ी के हिस्से को “नाली” कहा जाता है।

इसे बजाते समय कंधे में लटकाने के लिये, इसके बीच (कमर के पास) से कपड़े की पट्टी को डोरी से बाढ दिया जाता है। बजाते समय कपड़े की पट्टी का खिंचाव हुड़के के पुड़ों व डोरी पर पड़ता है जिससे इसकी आवाज संतुलित की जाती है। आवाज का संतुलन एवं हुड़के की पुड़ी पर थाप की लय पर वादक को विशेष ध्यान रखना होता है। 
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जागर और कंसासुरी थाली का संग

जागर के समय हुड़के के साथ एक और विशेष वाद्य यंत्र बजाया जाता है-कांसे की थाली, जिसे “कंसासुरी थाली” कहा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, यह थाली आसुरी प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने हेतु प्रयोग होती है, इसीलिए इसका उपयोग देवताओं के आह्वान और जागरण में किया जाता है। जब कांसे की थाली की झनझनाहट के साथ हुड़का गूंजता है, तो उससे उत्पन्न संगीत श्रोताओं को आध्यात्मिक भाव में ला देता है।

बिरत्वाई-देवताओं का पहला आह्वान

बिरत्वाई हुड़के की वह ताल है जिसे किसी भी जागर के शुरुआत में सबसे पहले बजाया जाता है। इसमें समस्त स्थानीय देवी-देवताओं, तीर्थस्थलों और मंदिरों में निवास करने वाले देवों का आह्वान किया जाता है। यह प्राचीन परंपरा हमें याद दिलाती है कि उत्तराखंड का संगीत केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि श्रद्धा, साधना और संस्कृति का हिस्सा है।

ताल और थाप 

  • हुड़का की थाप कुछ इस प्रकार होती है:

तुकि  दुं दुं दुं, तुकि  दुं दुं दुं।
तुकि  दुं दुं दुं, तुकि  दुं दुं दुं।
दुदुं    दुदुं  तुकि दुंग,
दुदुं,     दुदुं,   दु-दुदुं
दुदुदुं,    दुदुदुं,  दुदुं
दुदुदुं,    दुदुदुं,  दुदुं,    दुदुं,   दुदुदं
किदुं    दुदुं    दुदुदुं   किदुं   दुदं  दुदुदुं
तुकि दुं,    तुकि दुं,  तुकि दुं..............


  • शास्त्रीय लय में इसे इस प्रकार भी व्यक्त किया जाता है:

भम-भमऽ। पम पमऽ।
भम-भमऽ। पम-पमऽ।

  • शास्त्रीय ताल:-

धा धींऽ। ता तींऽ।
धा धींऽ। ता तींऽ।


  • तेज वादन के समय हुड़के की थाप और भी अधिक ऊर्जा से भरी होती है:
भम भमा। पम पमा।
धा धी ना, धा ती ना।
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लोक संगीत में हुड़के की गूंज

हुड़का सिर्फ एक धार्मिक वाद्य नहीं है। इसका प्रयोग उत्तराखण्ड के लोकगीतों और नृत्यों में भी बखूबी होता है। इसकी आवाज में एक विशेष गूंज होती है जो श्रोताओं को झूमने पर मजबूर कर देती है। यह न केवल संगीत देता है, बल्कि लोकजीवन की धड़कन को भी अभिव्यक्त करता है।


संरक्षण की आवश्यकता

आज जब आधुनिक संगीत और तकनीकी से युक्त वाद्य यंत्रों का बोलबाला है, ऐसे में हुड़का जैसे लोक वाद्य यंत्रों की पहचान और उपयोगिता दिन-ब-दिन कम होती जा रही है। यह आवश्यक है कि हम अपने पारंपरिक संगीत उपकरणों की संरक्षा और संवर्धन करें, उन्हें अगली पीढ़ी तक पहुँचाएं और उनकी सांस्कृतिक प्रासंगिकता को जीवित रखें। साथ ही, पारंपरिक वाद्य निर्माण की विधियाँ भी अब लगभग लुप्त हो चुकी हैं। यदि इन वाद्यों और उनसे जुड़ी कारीगरी को संरक्षित नहीं किया गया, तो हमारी यह सांस्कृतिक धरोहर हमेशा के लिए खो सकती है।

निष्कर्ष:

हुड़का न केवल उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान है, बल्कि यह हमारी लोक आस्था, परंपरा और प्रकृति से जुड़ाव का प्रतीक भी है। इसकी थापों में वह शक्ति है जो आत्मा को जागृत कर सकती है, जो देवताओं को आहूत कर सकती है। समय आ गया है कि हम अपने इस सांस्कृतिक धरोहर को पुनः अपनाएं और इसका गौरव पुनर्स्थापित करें।

नोट : यह पोस्ट स्वर्गीय श्री पंकज सिंह महर जी के लेख से प्रेरित है।