एक कर्मवीर, त्यागी, दूरदर्शी पर्यावरणविद और जननेता थे बालम सिंह जनौटी।


फाइल फोटो: श्री बालम सिंह जनौटी  
उत्तराखण्ड के बागेश्वर जनपद स्थित जनौटी पालड़ी गाँव में जन्मे बालम सिंह जनौटी एक कर्मवीर, त्यागी और दूरदर्शी पर्यावरणविद और प्रतिबद्ध जननेता के रूप में आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं। पर्यावरण चेतना, पर्यावरण संरक्षण के लिए उनके द्वारा किये गए कार्य हमेशा याद रखे जायेंगे। राजनीति में रहते हुए भी पद और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के लिए उन्होंने कभी भी मूल्यों के साथ समझौता नहीं किया। उनका सम्पूर्ण जीवन जनसरोकारों के प्रति समर्पित रहा। आज की पतनशील राजनीति में जनौटी के सिद्धांत प्रासंगिक हैं।

गुजरी सदी के आखिरी दो तीन दशकों के आंदोलनों और सार्वजनिक गतिविधियों के इतिहास में स्व० जनौटी का अहम स्थान है। राष्ट्रीय दल में रहकर भी उन्होंने पहाड़ के हितों की खुलकर पैरोकारी की। पिछले दशकों में वह जागरूक युवाओं के मार्गदर्शक थे।

04 दिसंबर 1949 में बागेश्वर के जनौटी पालड़ी गांव में स्व० पान सिंह जनौटी और गंगा देवी जनौटी के घर में जन्मे बालम जनौटी की प्रारंभिक शिक्षा उनके गांव में ही हुई। हाइस्कूल गणनाथ और इंटर की पढ़ाई कपकोट से पूर्ण की। उच्च शिक्षा उन्होंने अल्मोड़ा से प्राप्त की। वर्ष 1977-78 में विश्व विद्यालय परिसर अल्मोड़ा में छात्र संघ सचिव चुने गए। उन्होंने बी0टी0सी0 कर बागेश्वर जिले के विभिन्न विद्यालयों (कपकोट, बागेश्वर, देवलधार) में अध्यापन कार्य किया।

पहाड़ों में बेतहाशा काटे जा रहे वनों को बचाने के लिए उन्होंने विभिन्न वन आंदोलनों की अगुवाई की। गढ़वाल में चिपको आंदोलन और कुमाऊँ में इस आंदोलन को 'पेड़ बचाओ, पहाड़ बचाओ, पहाड़ों का शोषण बंद करो' नाम दिया गया। जनौटी को जनता द्वारा मिल रहे अपार समर्थन से घबराई सरकार ने उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ने पर ईनाम घोषित था। वनों को बचाने के लिए चलाये गए 'चिपको आंदोलन' के दौरान उन्हें जेल भी जाना पड़ा। कर्मवीर, त्यागी और दूरदर्शी पर्यावरणविद श्री जनौटी ने 'पहाड़ बचाओ आंदोलन' को प्रारम्भ कर पहाड़ की महान रक्षा और पृथक पहाड़ी राज्य की नींव डाली।  

वह अल्मोड़ा जिले में युकां के अध्यक्ष, अल्मोड़ा मैगनेसाइट श्रमिक यूनियन के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने तराण मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। 1982 में विवाह के बाद उन्होंने पहाड़ के हितों की रक्षा के लिए आजाद पहाड़ी मोर्चा का गठन किया। 1984 में अल्मोड़ा से विधान सभा का चुनाव लड़ा और मामूली मतों के अंतर से पराजित हुए। 1988 में अल्मोड़ा नगर पालिका का चुनाव भारी बहुमत से जीता। मुख्यमंत्री की गाड़ियों से भी टौल टैक्स वसूलने के कारण वह काफी चर्चाओं में रहे। किंतु दो साल बाद ही उन्होंने यह पद त्याग दिया। 1995 में उन्होंने लोक सभा का चुनाव भी लड़ा। पहाड़ और यहां के आम आदमी के प्रति उनकी संवेदनाएं उनकी पुस्तक किरमोई तराण पछ्याण, और तराण पत्रिका में अभिव्यक्त हुई हैं। शेरदा अनपढ़ के साथ मिलकर लिखी गई पुस्तक फचैक को 'भारत भारती श्रृंखला' का अनुशंसा पुरस्कार मिला। हर बसन्त पन्चमी के दिन उनके द्वारा अपने निवास 'कुमाँउनी आश्रम' में काव्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता था। आज के परिवेश में उनका व्यक्तित्व अनुकरणीय हैं।

स्वर्गीय बालम सिंह जनौटी के प्रकाशित साहित्य- तराण ( हिन्दी कुमाँउनी की मासिक पत्रिका का सम्पादन ), पछ्याण (सामूहिक काव्य संग्रह ), फचैक ( कुमाँउनी व्यंग्य संग्रह ) एवं अप्रकाशित साहित्य- कुमाँउनी हिन्दी शब्दकोश, कुमाँउनी कविता संग्रह, कुमाँउनी निबन्ध संग्रह, हिन्दी कविता संग्रह हैं। 

दिनांक 8 मई 2003 को ब्रेन हैमरेज के कारण मात्र 54 वर्ष की आयु में ही इनका निधन हो गया। भले ही बालम सिंह जनौटी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन एक कर्मवीर, त्यागी और दूरदर्शी पर्यावरणविद और प्रतिबद्ध जननेता के रूप में हमारे दिलों में जीवित रहेंगे। 



बालम सिंह जनौटी जी का एक जनगीत-



रात दिन जो लड़ि पड़नी
बात बिन झगड़ि पड़नी
ऊं के मैंसा काम आल,
ऊं के देशा काम आल।।
उपदेश दिनी देश में
धरनी धन विदेश में।।

समाजवाद ऊं के ल्ह्याल,
ऊं के देशा काम आल।।
भितेर लुवकि गांति पैरनी
भ्यैर बटी खादि पैरनी,
ऊं के गांधीवाद ल्ह्याल, 
ऊं के देशा काम आल।।
दुसर देखी खार खानी
बार कोश पार जानी
ऊं के लोकतन्त्र ल्ह्याल,
ऊं के देशा काम आल।। 
अधिनायकों पुज करनी,
तस्करों कैं खुशि करनी,
निर्धनों कैं ऊं के चाल,
ऊं के देशा काम आल।।
माछ देखी भितेर हाथ
स्याप देखी भ्यैर हाथ
ऊं के देश कैं बचाल,
ऊं के देशा काम आल।। 


हिन्दी अनुवाद : 
रात दिन जो लड़ते हैं, बिना बात झगड़ते हैं
वो क्या इंसान के काम आएंगे, वो क्या देश के काम आएंगे।
उपदेश देंगे देश में, पैसा रखें विदेश में
वो क्या समाजवाद लाएंगे, वो क्या देश के काम आएंगे।
अंदर से लोहे की गाती (कवच), बाहर से पहने हैं खादी
वो क्या गांधीवाद लाएंगे, वो क्या देश के काम आएंगे।
देख दूसरे को जलते हैं, मीलों दूर जो भगते हैं
वो क्या लोकतंत्र लाएंगे, वो क्या देश के काम आएंगे।
अधिनायकों की पूजा करते, तस्करों को खुश करते हैं 
निर्धन को वो क्या देखेंगे, वो क्या देश के काम आएंगे।
मछली देख भीतर हाथ करें, सांप देख कर बाहर हाथ 
वो क्या देश बचाएंगे, वो क्या देश के काम आएंगे।


ऋतु गीत  (ह्यौन)

दिन में सूरज, रात में चन्द्रमा, ता्र किलै चमकनी।
फुलङ फुलङ फूल जा, ह्यों फुलङ ह्यों किलै छिणकनी।
बो्ट डावों कि फोचिनी, डा्न का्नों झोइ किलै भरि जानी।
आ्ग तापनी बुड़ बाड़ी, ना्नतिना भ्यैर किलै धिरकनी।
हा्उ - बयाऊ, ढान - भुई, बादऊ फिरि किलै बरसनी।

भावार्थ- 
दिन में सूरज, रात में चन्द्रमा और तारे क्यों चमकते हैं।
बर्फ के फूल के समान बर्फ की फाहें, फूलों जैसी बर्फ क्यों छिड़कते हैं।
पेड़ों की डालियों के आँचल, जंगलों और झाड़ियों की झोलियां क्यों भर जाती हैं।
सयाने लोग तो ( वृद्ध वृद्धायें ) आग तापते हैं पर बच्चे बाहर क्यों कूदते फांदते हैं।
हवा, शीतल बयार, आंधी तूफान, बादल फिर फिर क्यो बरसते हैं।
(हर ऋतु में प्रकृति का अलग अलग सौंदर्य है।)



फोटो एवं कविता साभार श्री दिग्विजय सिंह जनौटी।