Kashil Dev | कपकोट और काशिल देव | बाली कुसुम की प्रचलित लोक कथा।

Kapkot Kashil Dev Mandir
Kapkot | कपकोट में काशिल देव मंदिर का विहंगम दृश्य।

उत्तराखण्ड के बागेश्वर जनपद स्थित कपकोट तहसील मुख्यालय से करीब एक किमी की दूरी पर स्थित श्री 1008 काशिल देव का मंदिर लोगों की आस्था का प्रतीक है। मान्यता है कि पहले काशिल देव लोगों को त्योहारों और गांव में किसी भी प्रकार की संभावित अप्रिय घटना की सूचना देते थे। लोग उन्हें बूबू और विवाहिताएं उन्हें ससुर देव के नाम से पुकारती हैं। लोगों का विश्वास है कि जो भी व्यक्ति काशिल देव को सच्चे मन से याद करता है। वह उसकी सारी मनोकामनाएं पूरी कर देते हैं।  मान्यता है कि करीब पांच सौ साल पहले कपकोट में राजा रत कपकोटी का राज था। काशिल देव उनके आराध्य थे। राजा क्षेत्र के हित में कोई भी निर्णय लेने से पहले काशिल देव की आज्ञा लेते थे। तब लोगाें के पास आज की तरह पंचाग नहीं होते थे। काशिल देव ही लोगों को तिथि, बार और पर्वों की आवाज देकर सूचना देते थे। गांव में किसी भी प्रकार की अनहोनी की वह पूर्व सूचना दिया करते थे।


काशिल देव राजा रत कपकोटी के पूज्य माने जाते हैं। पूर्वजों के अनुसार  राजा रत कपकोटी मुगलों के अत्याचार से क्षुब्ध होकर नेपाल चले गए थे। कुछ समय तक वहां रहने के बाद वे कपकोट आ गए और अपने साथ अपने कुल देवता काशिल देव को भी लाये। उस समय कुमाऊँ में भी गोरखाओं का अत्याचार था, अतः राजा रत कपकोटी, कपकोट घाटी के एक ऊंची चोटी पर बस गए और वहां अपना राजकाज चलाने लगे।

Kashil Dev Temple Kapkot
काशिल देव मंदिर




राजा रत कपकोटी के द्वारा भगवान काशिल देव को अपने साथ लाये जाने पर नेपालवासियों का मानना था कि अब उनके क्षेत्र में अप्रिय घटनाएं होने लगी हैं और वे काशिल देव को लाने कपकोट आ गए और राजा रत कपकोटी को सारी बातें बताई , परन्तु राजा ने उन्हें काशिल देव के शक्तिरूपी पत्थर की मूर्ति को नेपाल ले जाने की अनुमति नहीं दी। इस पर नेपालवासियों ने उस मूर्ति को रात में चोरी करके ले जाने की सोची और वे एक रात उस मूर्ति को उठाकर ले जाने लगे। ज्यूँ-ज्यूँ वे उस पत्थर की शिला को आगे ले जाते रहे उतना ही उसका भार बढ़ने लगा। कपकोट के छेती नामक स्थान पर उन्होंने विश्राम किया।  विश्राम के पश्चात जैसे ही वे जाने को तैयार हुए वे इस शिला को उठा नहीं सके। अब उन्होंने सोचा की खाली हाथ जाने से अच्छा है वे शिला का छोटा सा टुकड़ा तोड़कर नेपाल ले जाएँ। उन्होंने हाथ वाला हिस्सा क्षतिग्रस्त किया और अपने साथ ले गए।  तभी राजा के सपने में काशिल देव आये और उन्होंने यह घटना बताई।  राजा से सुबह देखा तो मूर्ति सच में वहां नहीं थी। स्वप्न में बताये स्थान पर राजा को वह शिला खंडित अवस्था में मिल गई।  राजा ने  पुनः इस शिला को मंदिर पर ले जाकर स्थापित किया। 


बाली कुसुम की प्रचलित लोक कथा- 

कहा जाता है कि राजा रत कपकोटी की एक छोटी बेटी थी। जिसका नाम 'बाली कुसुम' था। वे हर रोज अपनी बिटिया को पालने में झुला-झूलाकर सुलाते हुए कहते थे "ह्वली-ह्वली त्वीकेँ वैशाली राजाक व्यवूल". (भावार्थ : डलिया हिलाते हुए- सो जा बिटिया सो जा, तेरा विवाह में वैशाली राजा से करूंगा। )
एक दिन वैशाली राजा आखेट के लिए वहां से गुजर रहे थे।  राजा रत कपकोटी अपनी बिटिया बाली कुसुम को झुलाते हुये यही कह रहे थे - "ह्वली-ह्वली त्वीकेँ वैशाली राजाक व्यवूल" । राजा वैशाली अचंभित हुए और वे घर के आंगन तक आ गए। अन्दर से राजा रत कपकोटी अपनी बिटिया को झुलाते हुए और कहने लगे   "ह्वली-ह्वली त्वीकेँ वैशाली राजाक व्यवूल"। राजा वैशाली घर की सीढ़ी तक आ गये और जोर से बोले - एक जुवान या द्वी जुवान ? रत कपकोटी आश्चर्य में पड़ गए और उनके मुंह से निकल पड़ा "एक जुवान" अर्थात उन्होंने वैशाली राजा की चुनौती को स्वीकार कर लिया है।  अपनी जुबान के आधार पर उन्हें अपनी बिटिया बाली कुसुम का विवाह चिरपटकोट के राजा वैशाली से करनी होगी।

मंदिर परिसर

अभी बाली कुसुम पालने में ही थी। वे इस समय अपने वचनानुसार बेटी को उन्हें नहीं सौंप सकते थे। राजा रत कपकोटी ने निवेदन किया कि उनकी पुत्री बाली कुसुम अभी छोटी है। थोड़ा बड़ी होने पर वे उसका विवाह राजा वैशाली से करेंगे। राजा वैशाली मान गए। वे वापस चले गए। कुछ दिनों बाद पुनः कपकोट आकर वे राजा से उनके वचन याद दिलाते हैं।  रत कपकोटी कहते हैं उनकी बेटी अभी छोटी है जैसे ही बड़ी होगी वे बेटी का हाथ उन्हें अवश्य देंगे।  कुछ महीनों तक यही सिलसिला जारी रहा।
राजा वैशाली काफी बूढ़े थे। एक दिन उनकी मौत हो गई। राजा रत कपकोटी को उनकी मौत का समाचार मिला तो वे असमंजस में पड़ गए। उस समय पूरे भारत में सती प्रथा थी यानि पति की मौत के बाद पत्नी को भी सती होना पड़ता था। राजा रत कपकोटी अपने वचन दे चुके थे। अपनी जुवान से वे पीछे नहीं हट सकते थे।  राजा वैशाली की अर्थी खिरौ  (सरयू और खीर गंगा का संगम स्थल) तक पहुँचने वाली थी। रत कपकोटी ने बेटी बाली कुसुम को डलिया समेत उठाया और उसे सती होने के लिए चल पड़े। बाली कुसुम रास्ते में अपने पिता से पूछती है - पिता जी आज आप मुझे कहाँ ले जा रहे हैं ? राजा रत कपकोटी टाल मटोल करते रहे।  बाली कुसुम पुनः पूछती है - " पिता जी आप मुझे इतनी जल्दीबाजी में कहाँ ले जा रहे हैं ? " राजा के आंखों में आंसू थे।  वे रोते बिलखते आगे बढ़ते रहे। देवी के रूप में जन्मी बाली कुसुम तो समझ चुकी थी। पुनः वह यही सवाल करती है। राजा उसे पूरी बात बताते हैं।  पिता की बात सुन बाली कुसुम उन्हें सती न करने को कहती है। राजा अपने दिए वचनों से पीछे नहीं हटना चाहते थे। जैसे ही राजा शमशान घाट के पास पहुंचते हैं, बाली कुसुम उन्हें श्राप देती है - "तुम्हारे सिरहाने का पानी पैनाण (पैरों नीचे)  चले जाए। घर में गाय ब्याई तो सब बछड़े ही हों। पकी फ़सल में ओले पड़ जायें।" कुछ इस तरह से बहुत से श्राप उसने राजा को दे दिए और वह उस डलिया से परी बन उड़कर आकाश की तरफ उड़ गई।  राजा ने डलिया को राजा वैशाली की चिता में डालकर अपने वचनों को पूर्ण किया। अब बाली कुसुम के श्राप का असर पड़ने लगा था। श्राप से कपकोट गांव के सिरहाने से निकलने वाला पानी गांव के पैनाण (अंतिम छोर) छेती में निकल गया। वहां से कुछ मीटर आगे बहने के बाद यह पानी सरयू में समा जाता है। तब से आज तक यह पानी कपकोट के लोगों के काम नहीं आ पाया है। बहुत से बुजुर्ग लोग आज भी इस पानी को नहीं पीते हैं। आज भी यहां के लोग इन श्रापों के दुष्परिणामों को महसूस करते हैं।

हर वर्ष बैसाख महीने के तीन गत्ते को कपकोट वासियों द्वारा यहां की गांव कुशलता की कामना के लिए काशिल देव मंदिर में पूजा की जाती है। इस मौके पर गांव की विवाहित बेटियां अनिवार्य रूप से भगवान काशिल देव और बाली कुसुम के मंदिर में आकर मनौती मांगते हैं। वे मंदिर में काशिल बूबू के दर्शन कर बाली कुसुम को चूड़ियां, बिंदी इत्यादि चढ़ाते हैं। आज भी मंदिर में बाली कुसुम को फ्रॉक चढ़ाने की परंपरा है।








(नोट- यह जानकारी श्री गणेश उपाध्याय, कुमारी रीता कपकोटी के आलेख एवं वरिष्ठ महिला सरूली कपकोटी, स्वर्गीय गोविंद सिंह कपकोटी उर्फ गोरिला जी से सुनी कहानी के आधार लिखी गई है। - विनोद सिंह गड़िया www.eKumaon.com)।

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