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Bhitauli Festival | भिटौली : उत्तराखण्ड की महिलाओं को समर्पित एक विशिष्ट परम्परा।

On: November 3, 2025 10:24 PM
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bhitauli festival
Bhitauli Festival : उत्तराखण्ड के कुमाऊँ अंचल में विवाहित बेटियों को हिंदी माह चैत्र में नए वस्त्र, उपहार और माँ के हाथों बना पकवान देने की विशेष परम्परा है। जिसे स्थानीय भाषा में भिटोई या भिटौली कहा जाता है। भिटौली का सामान्य अर्थ है भेंट यानी मुलाकात करना। उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों, पुराने समय में संसाधनों की कमी, व्यस्त जीवन शैली के कारण विवाहित महिला को सालों तक अपने मायके जाने का मौका नहीं मिल पाता था। ऐसे में चैत्र में मनाई जाने वाली भिटौली के जरिए भाई अपनी विवाहित बहन के ससुराल जाकर उससे भेंट करता था, उसे नए वस्त्र, उपहार और मायके में माँ के हाथों से बने पकवान देता था।
बसन्त ऋतु के आगमन पर चैत्र माह की संक्रान्ति फूलदेई के दिन से बहनों को भिटौली देने का सिलसिला शुरू हो जाता है। यह रिवाज काफी पहले से चला आ रहा है। चैत के महिने में विवाहिता लड़कियों को अपने मायके की मधुर यादें सताती हैं। बसन्त ऋतु के आगमन से छायी हरियाली, कोयल, न्योली व अन्य पक्षियों का मधुर कलरव, सरसों, प्यूँली, गेहूं, जौ आदि से लहलहाते खेत, घर-घर जाकर बचपन में फूलदेई का त्यौहार मनाना, और भाभियों के संग रंगों के त्यौहार होली का अल्हड़ आनन्द लेना उसे बरबस याद आने लगता है। सुदूर ससुराल में विवाहिता लड़कियों को मायके का नि:श्वास न लगे इस लिए मायके वाले प्रतिवर्ष चैत माह में उनसे मुलाकात करने पहुंच जाते हैं। मां द्वारा तैयार किस्म-किस्म के पकवान, नये वस्त्र और उपहार बहनों को भेजने का प्रचलन है। कुमाऊं के ग्रामीण इलाकों में परम्परागत मान्यताओं का यह अनोखा रिवाज अभी भी जीवंत है। बहने मायके से आये पकवान और मिठाई को अपने आस पड़ोस बांट कर अपने मायके की कुशल क्षेम सबको बताती हैं।
 

भिटौली के सम्बन्ध में प्रचलित एक दन्त कथा –

एक गाँव में नरिया और देबुली नाम के भाई-बहन रहते थे। उनमें बहुत प्यार था। जब 15 वर्ष की उम्र में देबुली का विवाह हो जाता है। भाई नरिया और बहन देबुली को बिताये बचपन की यादें सताती रहती हैं। दोनों ही भिटौली के त्यार की  प्रतीक्षा करने लगे। अंततः समय आने पर नरिया भिटौली की टोकरी सिर पर रख कर बड़ी उत्सुकता और ख़ुशी के साथ बहन से मिलने चला। बहन देबुली बहुत दूर ब्याही गयी थी। पैदल चलते-चलते नरिया शुक्रवार की रात को दीदी के गाँव पहुँच पाया। देबुली तब गहरी नींद में सोई थी। थका हुआ नरिया भी देबुली के पैर के पास सो गया। सुबह होने से पहले ही नरिया की नींद टूट गयी। देबुली तब भी सोई थी और नींद में कोई सपना देख कर मुस्कुरा रही थी। अचानक नरिया को ध्यान आया कि सुबह शनिवार का दिन हो जायेगा।  शनिवार को देबुली के घर जाने के लिये उसकी ईजा ने मना किया था। नरिया ने भिटौली की टोकरी दीदी के पैरों के पास रख दिया और उसे प्रणाम कर वापस अपने घर को चल दिया।
देबुली सपने में अपने भाई को भिटौली ले करअपने घर आया हुआ देख रही थी। नींद खुलते ही पैर के पास भिटौली की टोकरी देख कर उसकी बांछें खिल गयीं।  वह भाई से मिलने दौड़ती हुई बाहर गयी, लेकिन भाई नहीं मिला। वह पूरी बात समझ गयी। भाई से न मिल पाने के पश्चाताप में वह ‘भै भूखों, मैं सिती, भै भूखो, मैं सिती’ कहते हुए प्राण त्याग दिए। कहते हैं देबुली मर कर ‘घुघुती’ बन गयी और चैत के महीने में आज भी गाती है : ‘भै भूखों, मैं सिती, भै भूखो, मैं सिती’
 

चैतोला का संबंध भिटौली से-

पिथौरागढ़ के गांवों में मनाया जाने वाले चैतोला पर्व का संबंध भिटौली से है। मान्यता है कि लोक देवता देवलसमेत अपनी 22 बहनों को भिटौली देने के लिए जाते थे। पिथौरागढ़ के आसपास के 22 गांवों में आज भी यह पर्व मनाया जाता है। इसके अलावा, मंदिरों में चैत्र की भिटौली के रूप में विशेष भोग लगाने की परंपरा भी है।
 
             

खत्म होती जा रही भिटौली की परंपरा।

कुमाऊं में अब चैत्र में भिटौली की टोकरी सिर पर रखकर जाने वाले नहीं दिखते। शायद नई पीढ़ी के लोग इसे जबर्दस्ती की परंपरा मानकर ज्यादा तवज्जो भी नहीं देना चाहते। वर्षों से चैत्र में बहनों और बेटियों को भिटौली देने की परंपरा के पीछे जो सांस्कृतिक गरिमा जुड़ी थी वह लगभग समाप्त हो गई है। अब भाई जन्मदिन की बधाई का सन्देश बहन तो व्हाट्सप्प या फेसबुक पर भेज तो देता है पर उसे चैत्र की भिटौली की न तो याद रहती है और न वह इसका औचित्य ही समझता है।
 
पहाड़ पर पलायन, बदलते सामाजिक परिवेश और भौतिकवाद का जिन परंपराओं पर असर पड़ा उनमें भिटौली भी प्रमुख है। 80 के दशक तक हर गांव की पगडंडी पर भिटौली लेकर जाने वाले दिख जाते थे। यदि भाई घर से बाहर हो तो मां-बाप जरूर चैत्र में बेटी से मिलने जाते थे। भिटौली में बेटी या बहन के लिए नए कपड़े, मिठाई और घर में तैयार किए गए पकवान आदि वस्तुएं ले जाई जाती थी। जिस दिन घर में भिटौली आती, उस दिन उत्सव का माहौल हो जाता। बाद के दिनों में भिटौली के नाम पर मनीआर्डर भेजे जाने लगे। कुछ समय बाद मनीआर्डर भेजने का प्रचलन भी कम हो गया और बैंकिंग के जरिए सीधे बेटियों के खाते में पैसे डाले जाने लगे।
Bhitoli Uttarakhand
Bhitoli Poster by Vinod Singh Gariya

Vinod Singh Gariya

ई-कुमाऊँ डॉट कॉम के फाउंडर और डिजिटल कंटेंट क्रिएटर हैं। इस पोर्टल के माध्यम से वे आपको उत्तराखंड के देव-देवालयों, संस्कृति-सभ्यता, कला, संगीत, विभिन्न पर्यटक स्थल, ज्वलन्त मुद्दों, प्रमुख समाचार आदि से रूबरू कराते हैं।

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