उत्तराखण्ड के पर्वतीय अंचल में अनेक ऐसी परंपराएँ और रीतियाँ प्रचलित हैं जो यहाँ के लोगों की आपसी स्नेह, भाईचारा और सहयोग की भावना को प्रगाढ़ करती हैं। इन्हीं परंपराओं में से एक है-मैल माणा, जो किसी व्यक्ति के निधन के बाद उसके परिवार के प्रति संवेदना और सहयोग प्रकट करने की एक प्रचलित सामाजिक रीति है। कुमाऊँ और गढ़वाल के ग्रामीण क्षेत्रों में यह परंपरा आज भी उतनी ही आस्था और भावना के साथ निभाई जाती है। आईये जानते हैं इस सामाजिक रीति के बारे में –
क्या है मैल माणा?
उत्तराखण्ड में जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर शोक संतप्त परिवार के प्रति संवेदना और दुःख प्रकट करने के लिए अपने सगे-सम्बन्धियों के अलावा गांव के सभी लोग पहुँचते हैं। शव के दाह संस्कार के बाद आने वाले दिनों में जब वह परिवार क्रिया-कर्म में बैठा रहता है। इस दौरान हर परिवार द्वारा शोकाकुल परिवार को अपनी तरफ से प्रेत के नाम पर एक छोटी से धनराशि या अपने घर में बने घी की कुछ मात्रा देता है, जिसे कुमाऊँ में “मैल माणा” कहा जाता है। यह सहयोग उस परिवार के प्रति सम्मान, सहानुभूति और प्रेम का प्रतीक माना जाता है।
मैल-माणा की प्राचीन पृष्ठभूमि
मैल-माणा के नाम से प्रचलित सहयोग करने की यह परम्परा उत्तराखंड में पीढ़ियों से चली आ रही है। लोग कहते हैं पहले के दिनों में लोगों के पास पर्याप्त मात्रा में धिनाली (दूध, दही, घी की उपलब्धता) होती थी, वे इस दौरान मैल-माणा की परम्परा घी देकर निभाते थे, जिसमें कम से कम एक पाव घी अवश्य दिया जाता था। समय के साथ-साथ धिनाली की उपलब्धता न होने पर अब अधिकांश परिवार अपनी सामर्थ्य के अनुसार एक धनराशि देते हैं। परंपरा का उद्देश्य अब भी शोक संतप्त परिवार को राहत और सहयोग प्रदान करना ही है।
कब तक दिया जाता है मैल माणा?
मैल माणा देने की अवधि भी परंपरागत रूप से निर्धारित है। यह सहयोग दाह संस्कार के दूसरे दिन से लेकर नौवें दिन तक दिया जाता है। दसवें दिन से अन्य संस्कार प्रारंभ हो जाते हैं, इसलिए इसके बाद मैल माणा नहीं दिया जाता। इस परंपरा के महत्व को इसी बात से लगाया जा सहता है जो व्यक्ति या परिवार शोकाकुल परिवार तक नहीं पहुँच सकता , किसी अन्य व्यक्ति या साधनों के माध्यम से मैल अवश्य भेजता है।
कहाँ खर्च होती है यह सहयोग राशि?
मैल के रूप में प्राप्त धनराशि या घी को मृतक की आत्मा की शांति के लिए ही खर्च किया जाता है।
परंपरा के अनुसार:
- यह राशि पीपलपानी (दसवें/ग्यारहवें दिन की रस्म) तक मृतक के निमित्त प्रयुक्त की जाती है।
- यदि धनराशि अधिक हो जाए, तो उसे वार्षिक श्राद्ध के लिए सुरक्षित रखा जाता है।
- घी को भी पीपलपानी तक समाप्त करना अनिवार्य माना जाता है।
इससे यह सुनिश्चित होता है कि सभी सहयोग उसी कार्य में लगाया जाए जिसके निमित्त वह दिया गया है।
सिर्फ एक रस्म नहीं, बल्कि मानवीय सहयोग की मिसाल
उत्तराखण्ड में मैल माणा सिर्फ परंपरा निभाने भर की रस्म नहीं है बल्कि यह पर्वतीय समाज में एक-दूसरे के दुःख-दर्द में साथ खड़े होने और कठिन समय में सहारा देने की अनोखी मिसाल है। खासकर आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के लिए यह सहयोग राशि किसी संजीवनी से कम नहीं होती।
मैल के जरिए मिलने वाली यह राशि अंतिम संस्कार और अन्य क्रिया-कर्म को सुचारू रूप से पूरा करने में मदद करती है, जिससे परिवार आर्थिक बोझ से बच जाता है और अपने प्रियजन को सम्मानजनक विदाई दे पाता है।
निष्कर्ष
मैल माणा जैसी परंपराएँ उत्तराखण्ड की सामाजिक संरचना की आत्मा को दर्शाती हैं। यहाँ के लोग केवल अपने सुख-दुःख तक सीमित नहीं रहते, बल्कि पूरे गांव को अपने परिवार की तरह मानते हैं।
ऐसी मानवीय परंपराएँ आज भी पहाड़ की संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं और समाज में प्रेम, करुणा और सहयोग की भावना को मजबूती प्रदान करती हैं।
नोट : कुमाऊँ के बागेश्वर जिले के विभिन्न गांवों में प्रचलित है यह परम्परा मैल माण के नाम से जानी जाती है। आपके यहाँ यह परम्परा किस नाम से जानी जाती है हमें बताएं भी बताएं – ईमेल करें – admin@ekumaon.com








