हुड़किया बौल - कष्टदायक कृषि कार्यों को सुगम बनाने के लिए अत्यंत सुन्दर माध्यम।


धान की रोपाई करती पहाड़ की महिलाएं।  |  चित्र - पोथिंग गांव (बागेश्वर

पहाड़ के जनजीवन में संस्कृति का खास स्थान रहा है। मेलों और त्योहारों के साथ ही कष्टदायक कृषि कार्यों को सुगम बनाने के लिए भी यहां हुड़किया बौल जैसी सांस्कृतिक विरासतें मौजूद हैं। सदियों पुरानी यह संस्कृति आज भी जारी है। आपदाओं की मार को भूलकर लोग भविष्य की बेहतरी के लिए इसी तरह संघर्ष करते रहे हैं।


कुमाऊँ क्षेत्र में हुड़किया बौल की परंपरा काफी पुरानी है। सिंचित भूमि पर धान की रोपाई के वक्त इस विधा का प्रयोग होता है। महिलाएं कतारबद्ध होकर रोपाई करती हैं। लोक गायक हुड़के की थाप पर देवताओं के आह्वान के साथ किसी लोकगाथा को गाता है। बेहतर खेती और सुनहरे भविष्य की कामना की जाती है। हुड़किया बौल के चलते दिन भर रोपाई के बावजूद थकान महसूस नहीं होती। यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी आज तक जीवित है।

हुड़किया बौल मुख्यतः रोपाई के समय गाये जाते हैं। “बौल” का शाब्दिक अर्थ है श्रम, मेहनत। हुड़के के साथ श्रम करने को हुड़किया बौल या हुड़की बौल नाम दिया गया है। सामूहिक रूप से खेत में परिश्रम करते हुए लोगों के काम में सरसता स्फूर्ति तथा उमंग का संचार करने का यह अत्यंत सुन्दर माध्यम है। इस कृषि गीत में एक व्यक्ति हाथ में हुड़का लेकर उसे बजाते हुई गीत गाता है। इस व्यक्ति को हुड़किया कहा जाता है। हुड़के की थाप पर हुड़किया काम करने वाले स्त्री-पुरुषों को प्रोत्साहित करने का काम करता है। यह एक तरह का मनोवैज्ञानिक प्रयोग है, जिससे काम करते-करते थकान का अनुभव भी न हो और काम भी हो जाय। हुड़के की थाप पर श्रम करते हुए हाथ-पैरों में एक यात्रिंक गति सी आ जाती है। हुड़किया, देवों की स्तुति, लोक गाथाओं और लोक गीतों को गाते-गाते लोगों को काम करने के लिये प्रोत्साहित करता है और लोग उसकी बातों से तथा इन गीतों से दुगुने जोश और लगन के साथ काम करते हैं।

इस विधा में हुड़के की थाप में गायक पहले गाता है फिर इसी लाइन को रोपाई करने वाली महिलाएं दोहराती है। 'सुफल है जाया पंचनाम देवा हो..' गाकर सभी देवताओं के आह्वान के साथ रोपाई शुरू की जाती है। बैजनाथ की उपजाऊ भूमि पर कत्यूरी शासक राजा विरम की कहानी हुड़किया बौल में कही जाती है। तैलीहाट गांव में बैजनाथ की राजधानी हुआ करती थी। राजा विरम की रिश्तेदारी गेवाड़ के कठैत क्षत्रिय लोगों के यहां थी। कहा जाता है कि एक बार बैजनाथ में अपनी जमीन में रोपाई के लिए विरम ने गेवाड़ से रिश्तेदारों को बुलाया। रोपाई के लिए आई एक सुंदर महिला ने राजा का मन मोह लिया। रोपाई के बाद सारी महिलाएं वापस चली गयीं लेकिन राजा के मन में उस खूबसूरत महिला की तस्वीर घर कर गयी। जब राजा को उस महिला की याद ज्यादा ही सताने लगी तो एक दिन वह घोड़े में सवार होकर गेवाड़ जाने लगा। कत्यूर घाटी के द्यौनाई पहुंचते ही थकान के मारे घोड़ा रुक गया। मनाने के बाद भी जब घोड़ा आगे नहीं बढ़ा तो क्रोधित राजा ने घोड़े का सिर कलम कर दिया और पैदल ही गेवाड़ चला गया। इस स्थान पर आज भी शिला के रूप में प्रमाण मौजूद है। महिला के प्रेम में पागल राजा विरम को उस महिला से मिलने से पूर्व ही षडयंत्र के तहत मौत के घाट उतार दिया गया। इस कथा के बाद गायक एकदम क्रम बदलते हुए गायन में झटका मारते हुए महिलाओं से सबक लेने तथा सचेत होने की प्रेरणा देता है।

वर्तमान समय में नदी घाटियों की सिंचित भूमि पर ऐसे नजारे देखे जा सकते हैं। बागेश्वर की कपकोट और गरुड़ घाटी में हुड़किया बौल के साथ धान की रोपाई आज भी देखी जा सकती है।