उत्तराखंड अपनी समृद्ध संस्कृति, लोक पर्वों और और अनूठी परंपराओं के लिए जाना जाता है। इन्हीं परंपराओं में से एक है मौरी मेला, जिसे स्थानीय लोग मोरी कौथिग के नाम से भी जानते हैं। यह मेला पौड़ी जिले की पट्टी गगवाड़स्यूं के तमलाग गांव में हर 12 वर्षों में आयोजित होने वाला एक पारम्परिक पांडव मेला है। यह उत्सव कोई साधारण मेला नहीं, बल्कि छह महीनों तक चलने वाला एक भव्य धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन है, जो हिंदी माह मार्गशीर्ष की 22 गते (दिसंबर) से शुरू होकर आषाढ़ माह की 22 गते (जुलाई) को संपन्न होता है।
Mauri Mela 2025-26 : 12 वर्षों बाद आयोजित होने वाला पारम्परिक मौरी मेला दिनांक- 7 दिसंबर 2025 से शुरू हो रहा है, जो दिनांक 7 जुलाई 2026 तक चलेगा। इस अवधि में पांडव मंडाण समेत विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम आयोजित की जायेंगी।
मौरी मेले का मुख्य आकर्षण
मौरी मेले का केंद्र बिंदु है पांडव नृत्य है, जो महाभारत की पौराणिक कथाओं पर आधारित एक जीवंत प्रस्तुति है। गांव में स्थित भैरव मंदिर के प्रांगण में स्थानीय लोग पारंपरागत वेशभूषा पहनकर ढोलसागर की धुनों पर पांडव नृत्य करते हैं। मेले के दौरान, विभिन्न गांवों के लोग एकत्रित होते हैं और सामूहिक रूप से उत्सव मनाते हैं। यह मेला सामाजिक एकता, सांस्कृतिक संरक्षण और परंपराओं के संवर्धन का प्रतीक है। साथ ही, मेले में स्थानीय हस्तशिल्प, व्यंजन और खेलों का भी आयोजन होता है, जो पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बनता है।
मौरी शब्द का अर्थ क्या है?
‘मौरी’ शब्द वास्तव में ‘माहौरू’ शब्द का अपभ्रंश है। इसका उल्लेख कई प्राचीन जागरों में मिलता है-
“दिशा कू माहौरू, माहौरू लगाण
बांझू माहौरू, माहौरू लगाण
भैजी चल्दू बणाण, माहौरू लगाण”
माहौरू का अर्थ है-दान देकर किसी बंजर या वीरान भूमि को हराभरा बनाकर पुनः समृद्ध, उर्वर और जीवित करना। मेले की समाप्ति इसी दान परंपरा की पूर्ति का प्रतीक मानी जाती है।
मौरी क्यों मनाई जाती है?
इसके पीछे की पांडव कथा है। लोककथाओं के अनुसार, पांडवों की एक धर्म बहन थी, जिसका नाम रूपेणा था। रूपेणा का विवाह नारायण नाम के राजा से हुआ था। एक बार नारायण नदी में स्नान कर रहे थे, तभी ऊपर प्रवाहित एक कुंड में अत्यंत रूपवती नारी कुसमा कुवेण स्नान कर रही थी। उसकी सुनहरी लट पानी में बहकर नारायण की उंगली में उलझ गई।
लट को देखकर नारायण आश्चर्य चकित हो उठे। वह सोचने लगे जिसकी लट इतनी खूबसूरत हैं, वो कितनी सुन्दर होगी। बस क्या था। वे उस लट के सहारे उस कुसुमा तक पहुँचते हैं। वास्तव में कुसुमा बेहद रूपवती थी। उसके सौंदर्य से मुग्ध होकर नारायण कुसमा कुवेण के साथ रहने लगे। इस दौरान वे अपनी राजरानी रूपेणा समेत अपने राजपाट और अपने कुलवंशों को भूल जाती हैं। बस क्या था, परिस्थितियों का का लाभ उठाकर राक्षसों ने उसके हरभरे और समृद्ध राज्य को उजाड़ दिया और उसके पुत्रों को भी मार कर खा लिया।
अपने पुत्रों की अकाल मृत्यु और उजड़े राज्य से हताश रूपेणा सहायता के लिए हस्तिनापुर पहुँची। माता कुंती ने उसकी करुण कथा सुनकर उसे आश्वासन दिया कि “मैं तुझे दान देकर फिर से समृद्ध करूँगी।” तुझे जो भी दान चाहिए मैं उसे दूंगी। तब रूपेणा ने दान में भतीजा भिभीसैण, भतीजी भभरोन्दी, कल्यलुहार, नागमौला और काली दास ढोली को माँगा। काली दास ढोली को ढोलसागर का पूर्ण ज्ञान था। आज भी इस मेले का प्रमुख आधार माने जाते हैं। पांडवों द्वारा किये इन सभी दानों के माध्यम से रूपेणा का उजड़ा राज्य पुनः हरा-भरा और समृद्ध हुआ। इसी दान-परंपरा की स्मृति में मौरी मेला मनाया जाता है।
मौरी मेला तमलाग और कुण्डी में ही क्यों होता है?
- तमलाग गांव
कहते हैं, अपने वनवास के दौरान पांडव जब गढ़वाल के पहाड़ों से गुजर रहे थे तब वे कुछ दिन तमलाग गाँव में रुके थे। इस दौरान सभी गांववासियों ने पांडवों का आतिथ्य-सत्कार अपने पुत्रों की तरह किया। इससे प्रसन्न होकर माता कुंती ने तमलाग को “ससुराल” की उपाधि दी। इसी कारण हर 12 वर्ष में तमलाग गाँव के लोग पांडवों का विशेष आवाहन करते हैं।
- कुण्डी गाँव
इसी प्रकार पांडव सबदरखाल के कुण्डी गाँव में भी कुछ समय ठहरे थे। कुंती ने कुण्डी को “मायका” कहा था। इसी कारण मेले में कुण्डी गाँव की विशेष भूमिका होती है।
मौरी मेले की अनोखी परंपराएँ
- कुण्डी से तमलाग तक देव पांडवों का स्वागत
मेले में तमलाग कुंजेठा गाँव के पांडव, ढोल-दमौ की थाप के साथ कुण्डी गाँव के देव पांडवों को न्योता देने जाते हैं। सीमा पर उनका सम्मानपूर्वक स्वागत होता है और उन्हें चांदणा चौक तक लाया जाता है। यह दृश्य इतना भव्य होता है कि हजारों लोग छतों पर खड़े होकर इसे देखते हैं।
- रातभर पांडव नृत्य और देव-आशीर्वाद
इस दौरान रात भर पांडव नृत्य, लोगों का रांसों, और देवों का आवाहन चलता है। ये क्षण अत्यंत भावुक और करुण होते हैं मानो बेटी की विदाई हो रही हो।
- देव वन का दैविक चमत्कार: जड़ सहित पेड़ उखड़ना
मेले के अंतिम दिन हजारों नर-नारी सुमेरपुर के जंगल में चीड़ के पेड़ों को लेने जाते हैं। इस दौरान चिन्हित चीड़ के पेड़ों पर ज्यूंदाल (चांवल के पिठ्यॉँ) लगाया जाता है। कहते हैं कि ज्यूंदाल लगते ही पेड़ दैविक शक्ति से कांपने लगते हैं। इसके बाद तमलाग और कुण्डी गाँव के भीम, नारायण और हनुमान रूपधारी पांडव इन पेड़ों को जड़ सहित उखाड़ते हैं। इस अद्भुत दृश्य को देखने हजारों लोग यहाँ आते हैं। इन पेड़ों को जैंती की थाती में लाकर पूजा की जाती है और बाद में नदी में विसर्जित किया जाता है।
ढोल वादकों की महत्वपूर्ण भूमिका
मौरी मेला ढोलसागर के बिना अधूरा है। ढोल सागर के ज्ञाता हमारे अलग-अलग दास बंधु विभिन्न तालों से इस मेले को सजीव बना देते हैं। जिसका वर्णन यहाँ कर पाना संभव नहीं है।
एकता, संस्कृति और विरासत का प्रतीक
मौरी मेला केवल तमलाग–कुण्डी का आयोजन नहीं, बल्कि पूरे गगवाड़स्यूं पट्टी और आसपास की पट्टियों का सांस्कृतिक उत्सव है। गुमाई, पंडोरी, सुमेरपुर, चमल्याखाल, नेगयाना जैसे गांव अपनी पताकाएँ और ढोल-दमौ के साथ मेले में शामिल होते हैं। यह मेला सामाजिक एकता, सांस्कृतिक संरक्षण, लोककला और लोकनृत्य को बढ़ावा, धार्मिक आस्था का खूबसूरत उदाहरण है।
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छह महीने तक चलने वाला यह आयोजन उत्तराखंड की जीवंत सांस्कृतिक विरासत को नई पीढ़ी तक पहुंचाने का एक अच्छा माध्यम है।
मौरी मेला सिर्फ एक उत्सव नहीं बल्कि यह एक भावना, एक विरासत, एक आस्था, और पांडव संस्कृति का अद्वितीय संगम है। इसका हर दृश्य, हर रांसा, हर नृत्य और हर अलाप उन पौराणिक परंपराओं की कहानी कहता है जो सदियों से गढ़वाल की धरती में जीवित हैं।








