Famous Nag Temple in Kumaon-Dhaulinag | कुमाऊँ का प्रसिद्ध नाग मन्दिर - धौलीनाग।

Dhauli NaaG Temple

  • विनोद पन्त - खन्तोली (हरिद्वार)
ऊँ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनु।
ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्य सर्पेभ्यो नम:।।

कुमांऊ मण्डल में अनेक नाग मन्दिर हैं, जिनमें प्रमुख हैं- धौलीनाग, पिंगलनाग, फेणींनाग, खरहरिनाग या खरेनाग, बेड़ीनाग, कालीनाग। इनमें से "धौलीनाग" कुमाऊं के प्रमुख तीर्थ बागेश्वर से तीस किलोमीटर दूरी पर ग्राम खन्तोली में स्थित है। धौलीनाग शब्द धवल यानि कि श्वेत शब्द से बना है, धौलीनाग को धवलनाग भी कहा जाता है पर अधिक  प्रचलित शब्द धौलीनाग ही हो गया है। ग्राम खन्तोली के उत्तर दिशा में पर्वत की चोटी पर बांज बुरांस और चीड़ के जंगलों के बीच भगवान धौलीनाग का मन्दिर स्थित है। मन्दिर से गिरिराज हिमालय की हिमाच्छादित चोटियां साफ दिखाई देती हैं मानो स्वयं पर्वतराज धौलीनाग देवता के दर्शन कर रहे हों। धौलीनाग देवता बागेश्वर जिले की पल्ला-वल्ला कमस्यार और दुग नाकुरी आदि पट्टियों के ईष्टदेव हैं। 

धौलीनाग मंदिर से जुड़ी किवंदन्ती  

मन्दिर से जुड़ी एक किवंदन्ती प्रचलित है कि एक बार मन्दिर के पास रात्रि में भयानक आग लग गयी और समीपवर्ती गांवों के लोगों को देववाणी द्वारा पुकारा गया। कहा जाता है कि यह आवाज धपोलासेरा के धपोला और निकटवर्ती भूल लोगों काण्डा के काण्डपाल , पोखरी के चन्दोला और  खन्तोली के पन्त लोगों ने सुनी। धपोला लोग भूल लोगों की मदद से मशाल लेकर चल पड़े।  मार्ग में चन्दोला लोग भी सहायता के लिए निकल पड़े और खन्तोली के पन्त लोग हाथ में दूध, चावल, जल आदि लेकर आ गये।  इन सबके बीच तत्परता दिखाते हुए काण्डा के काण्डपाल ब्राह्मण सबसे पहले पहुचे और फिर सबने आग बुझाई।  यह विवरण एक दन्तकथा की तरह आसपास के गांवों के लोग सुनाते हैं।  उपरोक्त विवरण के आधार पर ही कहा जाता है कि देव आदेश के बाद समीपवर्ती गांव वालों का मन्दिर के प्रति कर्तव्य का निर्धारण किया गया।  खन्तोली के पन्त समुदाय को पंडिताई का कार्य प्रदान किया गया, हालांकि मुख्य पुजारी धामी उपजाति के राजपूत करते हैं। काण्डा के काण्डपाल चूंकि संकट के समय सबसे पहले पहुंचे तो उनको सर्वप्रथम भगवान को भोग लगाने का अधिकार पुरस्कार स्वरूप मिला, धपोलासेरा के धपोला लोगों को भूल लोगों के सहयोग से मन्दिर में बाईस हाथ मशाल लाकर प्रज्वलवित करने का आदेश हुवा। काण्डपाल लोग जो प्रमुख भोग लगाते हैं वो रिषि पंचमी, रात की पंचमी और कार्तिक पूर्णिमा को लगता है।  नागपंचमी को धपोला लोगों का भोग लगता है। 

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यद्यपि यहां पर प्रत्येक संक्रान्ति, पूर्णिमा और पंचमी शुक्ल पक्ष को भक्तगण आते हैं पर हर वर्ष भाद्रपद और आश्विन मास की शुक्ल पंचमी को विशाल मेले लगते हैं।  जिनका व्यापारिक दृष्टि और सांस्कृतिक दृष्टि से काफी महत्व है।  अब बाजार की सर्वत्र सुलभता से व्यापारिक महत्व गौंण हो चला है। भाद्रपद शुक्ल पंचमी को दिन का एवं आश्विन शुक्ल पंचमी को रात्रि का मेला लगता है। रात की पंचमी का मुख्य आकर्षण अभी भी परम्परानुसार धपोलों द्वारा लायी गयी बाईस हाथ चीड़ के छिलुके ( पतली पतली लकड़ियाँ ) द्वारा तैयार मशाल होती है। मशाल को पूरे विधि-विधान के साथ धपोला लोग मार्ग से चन्दोला लोगों को साथ लेकर ढोल-दमौ की आवाज के साथ मन्दिर में लाते हैं।  मन्दिर प्रवेश से पूर्व धौलीनाग मन्दिर के पीछे विशाल मैदान में मशाल को रख दिया जाता है। जहां पर मशाल रखी जाती है वह स्थान स्थानीय भाषा में एकलु साल या बुड़ उधांण कहा जाता है। इसी जगह पर ढोल-दमौं के थाप के साथ देवता का आवाहन किया जाता है।  यहीं पर देवता किसी पुजारी के शरीर में अवतरित होकर सम्पूर्ण इलाके का फलाफल बताते हैं। यद्यपि यह बात कुछ लोगों को आज के वैग्यानिक युग में कुछ अटपटी लग सकती है पर यह भी मानना ही पड़ेगा कि हमारी देवभूमि कुछ अलौकिक रहस्यों से भरी है। जहां पर आस्था तर्क की कसौटी पर भारी पड़ती दिखाई देती है। जब इस स्थान पर ढोल-दमौं के स्वर गूंजते हैं तो दूर-दूर तक पर्वतों से टकराकर जो ध्वनि गुंजायमान होती है उसका वर्णन लिखकर करना संभव नहीं  ये तो वहीं उपस्थित रहकर आत्मा से महसूस करने की चीज है। ढोल के स्वर, पुजारी द्वारा देवता के आवाहन के शब्द जिन्हैं बरमौ कहा जाता है रोम-रोम को रोमांचित कर देता है। 

धौलीनाग मंदिर का स्थानीय नाम 

धौलीनाग मन्दिर को स्थानीय भाषा में 'उधांण' भी कहा जाता है। अब यह शब्द कहां से आया इसका मतलब क्या है यह भी एक प्रश्न है। उधांण असल में मराठी भाषा का शब्द है। जिसका मतलब है वह ऊंचाई पर स्थित सुरम्य  स्थान जहां पर सुगंधित हवा बहती हो। चूंकि पहाड़ में अधिकांश लोग महाराष्ट्र से आये हैं तो संभव है ये शब्द उन्ही से चलन में आया हो और धौलीनाग मन्दिर जिस जगह पर स्थित है वह पर्वत की ऊँचाई पर भी है और शीतल सुगन्धित पवन वाला भी। 


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रजांगि देवता को चढ़ावा 

धौलीनाग मन्दिर में वैसे तो स्थानीय लोग अपनी कोई भी वस्तु चाहे फल हों दूध हो या अन्न-साकादि हो सबसे पहले ईष्टदेव को ही चढ़ाते हैं यदि मन्दिर जाना संभव ना भी हो तो घर से अर्पण कर दिये जाते हैं। फिर भी कार्तिक पूर्णिमा को नये चावलों को जिन्हें "सीक चढ़ाना" कहते हैं चढ़ाया जाता है।  यहां भी सबसे पहले सीक चढ़ाने का अधिकार काण्डा के काण्डपाल लोगों को ही है। धौलीनाग देवता का एक स्वरूप विष्णु भगवान का भी माना जाता है। इसलिए चातुर्मास में भगवान की पूजा अर्चना ( विष्णु शयन के समय ) नहीं की जाती।  इसे कृषि व्यवसाय से भी जोड़ा जा सकता है। उस समय धान की रोपाई ज्यूं ही चालू होती है वह समय पांग पड़ना कहते हैं तभी पूजा बन्द हो जाती है। फिर पंचामृत आदि के बाद मन्दिर में पूजा पुन: शुरू हो जाती है। मन्दिर में सत्यनारायण कथा , पंचामृत, विष्णुसहस्त्रनाम पाठ और भागवत करने का बड़ा महत्व है। वैसे तो धौलीनाग जी को रजांगि देवता कहा जाता है इसलिए भावपूर्वक फूल बतासे की पूजा का भी वही महत्व है। 

धौलीनाग मंदिर

धौलीनाग जी की मान्यता 

हर छोटे-बड़े कार्य सिद्धि के लिये धौलीनाग देव की सहायता ली जाती है।  हर समस्या के समाधान के लिये इन्हीं को पुकारा जाता है। अपने बच्चों के लिये नौकरी, विवाह, मकान आदि कार्य हों बस मुंह से एक ही बात निकलती है लोगों की हे धौलीनाग जी ! मेरे बेटे की दो रोटी का जुगाड़ कर देना। मेरी बेटी के हाथ पीले करवा देना,अच्छा वर दिला देना। कहीं मेरे बच्चों के सिर छिपाने की जगह दिला देना .. मतलब मकान बनवा देना या फिर हे ! धौलीनाग ज्यू मेरे बेटे को अच्छी तरह परदेश तक पहुंचा देना, मार्ग में इन्हें कष्ट ना हो। परदेश में हमारे परिवार की रक्षा करना। मेरे बच्चे पास हो जाये, भैंस ब्या जाय। हर चीज भगवान धौलीनाग को ही समर्पित रहती है वो चाहे समस्या हो या कष्ट। सबका निवारण धौलीनाग जी कर देंगे ऐसा अटूट विश्वास है। 

सोते समय माँ को कहते सुना जाता है - ईजा पड़ जा धौलीनाग ज्यू नाम ल्हिबेर। अगर कसम भी खानी हो तो लोगों की जुबान पर धौलीनाग कसम ही आता है। कभी आश्चर्य के भाव पर भी धौलीनाग जी ही स्मरण आते हैं जैसे - हे धौलीनाग इतण लम्ब स्याप .. या हे धौलीनाग ज्यू बाग ...?

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आसपास के क्षेत्रों के प्रवासी गाँववासियों का यही मानना है कि हम लोग परदेश में इन्ही के आशीर्वाद से दो रोटी खा रहे हैं। लोग ब्याह शादी में गाँव आ पाये या नहीं पर साल दो साल में धौलीनाग जी की पूजा के लिये जरूर गाँव आते हैं।  यदि खुद ना भी आ पाये तो गाँव किसी के हाथ भेट घाट भेजना नहीं भूलते। किसी के यहां कोई भी शुभ कार्य हो तो उसके बाद धौलीनाग जी के नाम की कथा अनिवार्य रूप से की जाती है। यदि मन्दिर में ना भी कर सके तो घर से ही उनके नाम की कथा हो जाती है।  बेटा या बेटी के विवाह के बाद बेटा बहू को ढोल बजाकर सबसे पहले भगवान के दरवार ही ले जाता है। 

कहने का तात्पर्य ये है कि धौलीनाग इलाके के कण-कण में विद्यवान हैं। हर किसी के सांसों में हैं। 

धौलीनाग जी सिर्फ भगवान न होकर मानो सभी के अभिभावक हों।